जितनी बड़ी ये दुनिया है
उतना ही कम मुँह खोलता हूँ
जाति से हूँ ब्राहमण मैं
पीठ-पीछे नहीं,सब मुँह पे बोलता हूँ-
पहले मैं पण्डित भयो, बाटत फिरत रयो ग्यान
भक्ति लगन ऐसी लगी, हुआै चूर अभिमान।
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पुजारी कोई भी नही बन शकता उसके लिये आपका मन साफ शुतरा तथा गंगा जल जैसा पवित्र होना चाहिए ।
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प्यार भी लिखता हूँ, वार भी लिखता हूँ
गिरती हुई सरकार भी लिखता हूँ।
हूँ शांत तो मत समझ कायर,
ब्रह्म हूँ, हाथों से संसार भी लिखता हूँ।।*-
सुनो,
कहाँ गुम हो,
वापस करीब आओ !
ज़ख्म सुख के भर रहे...
इन्हें कुरेद के हरा-भरा कर जाओ !!-
अभी कामयाबी कि हवाओं ने मेरे घर कि और रुख किया हीं था !
कि बस्ती के परिंदों ने फड़फड़ाना शुरू कर दिया !
॥ अभिषेक शुक्ला ॥ ..-
ये जो मेरे भरोसे की कबर तुम ने बनाई है!!!
ये कला भगवान की देन है या किसी और ने तुम्हें सीखाई है!!!-
मौत भी दीवानी थी तेरी...
भटकती रही पाने को तुझे,
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तुम जी गए मर कर भी "बिस्मिल"
और हम मरते रहें जीने की खातिर...।
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कौन तुम्हे समझाये कैसे तुम्हे बतलाये
क्या जानो तुम मजहब के रिश्ते
क्या जानो इंसानियत की पहचान
केवल करते हिन्दू और मुस्लिम
ना कोउ किसी का करे आदर सम्मान
बाहर की दुनिया मे दिखावा करते
मन मे रखे है इर्ष्या के सब ख़ंजर भंडार
कैसे करे हम उनसे मोहब्बत
जिन्होंने फैलाये है
अंधकार और विष के तेज प्रचार
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