नज़र और नज़रिए का ही तो फ़र्क है
एक ही दुनियाँ फ़िर भी सबकी अलग है..-
आँखें भर देखता हूँ तुम्हें, तसव्वुर लगती हो,
नज़रें मिला शर्मा जाती हो, जयपुर लगती हो।-
फैला हुआ 'चांद'
एक 'आसमा' पे
मैला हुआ है 'जमी'
नज़रो में 'किसके'
क्या है?
'कमी' है
है जानता 'हर' कोई
करते है 'सब'
वो भी करता ही होगा
हर रात एक 'खुदकुशी'
कहने को 'सब' साथ
'कोई' नही है
हैरान हर 'आदमी'-
पूरी एक उम्र लगती है मियाँ
किसी से बे-हद, बे-पनाह, बे-ग़रज़
शिद्दत भरी मोहब्बत होने में
और तुम कहते हो
मोहब्बत तो बस यूँ ही
एक नज़र में ही हो जाती है
- साकेत गर्ग 'सागा'-
दूर मुसाफ़िर.. नज़र से जा रहे हैं
यह आँसु भी अपने सफ़र पे जा रहे हैं,
अभी तो जिंदा हैं यह नामुराद साँसें
फ़िर क्यूँ हम सबकी ख़ैर-ओ-ख़बर से जा रहे हैं,
शहर का शहर सारा अज़नबी सा हुआ पड़ा है
यह हम अजकल.. किस डगर से जा रहे हैं,
ख्वाइशों की टहनियाँ तो अभी सुखी नहीं थी
फ़िर ना जाने क्यूँ परिंदे शज़र से जा रहे हैं!!-
अब तो..
आईने में भी उसका ही
अक़्स नज़र आने लगा है हमें..
जमाना तो..
वैसे भी हमें जानता न था,
मगर अब तो..
ख़ुद को ख़ुद से ही
बदनाम करने लगे हैं हम..!-
हमने तो अभी नजर भर देखा भी नहीं था जिन्हें....
इक वो थे जो कह गए
उन्हें हमारी ही नज़र लगी है....-