निशा निर्मम निथर गई
भ्रमित भोर भागती अाई
नियमित न्याय जगत का
दोहराने दिनकर संग लाई
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कुछ लोग एक अलग ही level पे ज़िंदगी जी रहे होते है,
उनसे कोई मोहब्बत करता है तो भी उन्हें फर्क नहीं पड़ता,
उनसे कोई नफरत करता है तो भी उनकों रद्दि भर फर्क नहीं पड़ता....
क्योंकी वो जिस नज़रिये से दुनिया को देखते है,
उनको दुनिया बिल्कुल वैसी ही नज़र आती है,
बिल्कुल इस शाँत रात्री जैसी,
जिनको इस निशा के अंत से कोई दुख नहीं
बल्कि मन में कल के सूरज के आगमन के लिये एक उत्सुकता है....-
निशा निवेदन करता हूं
यूं ना अत्याचार करो
अभी-अभी तो आई है
कृपया फिर से अंधकार करो-
मेरी सोच को भी थोड़ा आराम मिल जाएं |
तुम कुछ ऐसी खता कर दो
हमारी अधूरी कहानी को
प्यार का निशा मिल जाएं |-
निशा का नशा है
या नशा ही निशा है
रास्ते खो गये हैं
भटकी हुई दिशा है-
&"चांद-चांदनी और निशा"!&
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मुझे पसंद है चांदनी,
पर चांद के बिना
उसका अस्तित्व ही क्या..!?
उससे भी प्यारी
लगती है निशा...,
जिसके आते ही
चमक उठता है चांद...
छा जाता है आसमान में
बिखरने को अपना सौंदर्य!
हां ..,,
निशा के बिना चांद का
भला क्या अस्तित्व...?
(शेष अनुशीर्षक में )
"श्वेता दिवेदी"
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जो कल तक हँसता,मुस्कराता था साथ मेरे
आज उसका निशा तक नही मिला जमीं पर..-
दीप प्रीत का क्यों किया प्रज्ज्वलित
प्रियतम, तम मुझे प्रिय है।
ये निशा तेरे नयनों के
काजल सम मुझे प्रिय है।-
हे निशा! तुम्हारे आँचल में है अमृत धारा...
पूर्ण दिवस की दौड़-धूप से आहत जन-जन,
भाँति-भाँति के अवसादों से क्लांत हुआ तन।
उगें दिवाकर से और दिनकर से ढल जाते,
सब दिनकर को तुम प्रदान करो निद्रा धन।
जैसे जाते हरि शरण हारे शरणागत,
उन हारे शरणागत को तुम शरण लगाओ।
हे निशा! तुम्हारे आँचल में है अमृत धारा,
मूर्छित प्राणी-तन में जीवन दीप जलाओ।
सकल जीव-आत्मा तुझसे नवचेतन पातीं,
और चेतना त्याग लीन तुझमें हो जातीं।
कभी नहाती जल से, कभी स्वेद से लथपथ,
और कभी श्रम पथ पर अपना रक्त बहातीं।
उच्च श्वास मद्धम-मद्धम हो चली निम्न है,
ले शीश अंक में दिव्य संजीवन भोग लगाओ।
हे निशा! तुम्हारे आँचल में है अमृत धारा,
मूर्छित प्राणी-तन में जीवन दीप जलाओ।-