मन वसन्त
तन वसन्त
जीवन वसन्त
हो गया
कोई निराला
कोई पंत
कोई दुष्यंत
हो गया
प्रकृति और
संस्कृति से
प्रेम अनंत
हो गया-
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है!
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है!
इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पैर घुटनों तक सना है!
पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है!
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है!
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है!
दोस्तो ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है!
:--"दुष्यंत कुमार"
(स्तुति)-
कहाँ हो दुष्यंत अब तो कुछ सुनो मेरे मन की
पूरी करके तपस्या आज लौटी उर्मिला, जानकी-
हश्र बुरा अभी और होगा
तुम्हारी सहने की छमता बताती हैं ||
आवाजें दबी दबी सी रहने लगी हैं
ये तुम्हारी विद्वत्ता बताती हैं ||
तुम्हारी ख़ामोशी कब तलक होगी मौत में तब्दील
हुक्मरानों कि बिना वजह तरमीन ( नियम संशोधन) बताती हैं ||
मैं, मेरी कलम और जहालत भरे हुक्मरानी फैसले
बता "दुष्यंत" इंकलाबी स्याही अब कैसे बताएँगी ??-
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए
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What's app,,insta,,facebook के जमानें मे
चलों कागजों की इबादत करतें है...
तुम मेरी शकुन्तला बन जाना मै तुम्हारा दुष्यन्त
चलों फिर से वही पुरानी वाली मोहब्बत करतें है....-
मैं हूँ दुष्यंत उपेक्षित तुम शकुंतला पाषाण प्रिये
युगों से चिर प्रतीक्षित तुम हर न लेना मेरा प्राण प्रिये-