जो मुझसे बात करने से कतराता हो, वो मुझसे आंख क्या मिलाएगा, खुद सीने में जिसके दहशत हो, वो मुझमें दर्द क्या उठाएगा थर्राते हो हांथ जिसके छूने से, एक भी कतरा खून का, वो रणभूमि में ललकारे कैसे,वो उन, नाजुक हाथों से तलवार क्या उठाएगा,
मुझसे घाटी की बात पूछोगे तो इतना ही कह पाऊँगा मैं .. एक उम्र गुज़र गई मुझे घर के तहख़ाने में रहते दिन का उजाला देखे .. जाने कितना अरसा बीत गया रातों में निकला हूँ दबे पांव .. कि चाँद तारों को भी भनक न लगे सांसों की आवाज़ से ज्यादा करीब रहा है .. कील वाले जूतों का शोर ख़ुसर फुसर करते पता नहीं चला .. कि मेरी खुद की आवाज़ कैसी है कहते हैं फूलों की घाटी बहुत महकती है .. मैंने तो बस जलती लाशों की राख़ सूंघी है ठिठुरती सर्दी में अलाव ! .. नहीं नहीं जलते घरों से ताप सेका है अक्सर फ़िज़ा में घुली हुई धुंध देखी ही नही मैंने .. धुआँ ही धुँआ अक्सर रुला गया है इन आँखों को घाटी की खूबसूरती कहने को है केवल .. मैंने तो दहशत का मंजर देखा है अक्सर .. सुनो .. और अब ना ही पूछो तुम बातें घाटी की .. जो मैंने धर्म लिंग जज़्बातों की बातें की तो सुन नहीं पाओगे तुम बातें लोथड़ों की