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मैं उसकी वो मेरा, हर पल का था जो बसेरा...
मेरी हर सांस पर था उसका गहरा पहेरा...
वो काया नहीं रूह का भी था सुनहरा...
वो सिर्फ़ हमसफ़र नहीं हमसाया था मेरा...
मगर, वो मंज़र आया जिसने था मुझे शहादातों से मिलवाया...
हाँ, वो मेरा काँच का दर्पंण था जो चंद लम्हों में बिख़र गया...
हर ख़्वाब पल भर में चूर-चूर कर सारे बंधन तोड़ गया...-
अंतर्मन का शोर,
दुनिया के झूठे शोर से जीतना चाहता है,
झुठला देना चाहता है भीतर के द्वंद को,
हाथ छटपटाते है दर्पण के सामने,
नोच लेना चाहते है,
तलाशना चाहते है उस छवि को..
जो खो गई है कहीं मौन के गर्त मे।।
आँखों में आंसू है..मगर ये क्या,
ये प्रतिबिम्ब में अस्तित्व क्यों धुंधला सा है?
ये कैसा एकांत है जो इसमें क़ैद हो गया है?
जो सज़ा काट रहा है निर्दोषता की..
जैसे सारी संवेदनाएं मर गई हो,
झूठ और स्वार्थ के रिश्तों में बनी वो खाईयां..
आभावों की पीड़ा,ह्रदय को आघात पहुंचा रही है।।
और धुंधला प्रतिबिम्ब भी जैसे न्याय कर रहा हो,
सच्चाईयों को अपनाने को कह रहा हो,
विश्वास का टूटना,जीवन को अंधकार से भरता ही है,
अपेक्षाएं रखना गलत नहीं,
पर इस तरह खुद को कष्ट देकर,
नियति को बदला नहीं जा सकता,
इसलिए..
समेट लो हर अनुभव को,
शान्त कर लो इस भीतरी कोलाहल को,
वो अपने,वो प्रेम सिर्फ तुम्हारा था,है,और रहेगा..
उसे होंठों पर नहीं अंतस में रखकर,
सदा के लिए अपना बना लो।।-
न मुझमें आकर्षण है
न मुझमें सुंदरता है
हाँ, मैं तुम जैसी नहीं पर...
मेरी प्रतिभा ही मेरा दर्पण है।
महत्ता की भूख नहीं हैं मुझे
मैं तो बस स्नेहाभिलाषी हूँ
आडम्बर के मुखोटे क्यू लगाऊं मैं
जब चाह मेरी मौलिकता है
हूँ तो मैं भी कुछ-कुछ तुम जैसी
पर अंतर सिर्फ मानसिकता की हैं।-
इठलाती बलखाती दर्पण में श्रंगार करती हूं, दर्पण -
मानो सौ सौ बातें उस से ही हजार करती हूं।
पल पल निहारती उसमें खुदको
जैसे सम्पूर्ण बना दिया उसने मुझको।
उस से ज्यादा कोई मुझे पहचानता नहीं,
सबसे सच्चा पुराना साथी वहीं।
इक रोज़ में काजल लगा ही रही थी
कि दो नजरो ने मुझसे कुछ कहा-
आंचल पर चुनरी सजा ही रही थी।
महीन सी आहट ने जैसे कुछ गुना,
दर्पण ने कुछ कहा
सुन्दरी खुदको तो संवार लेती हो
मुझको ही क्यों अनदेखा कर देती हो
पहले की तरह अब बात नहीं करती हो,
मुझको देखकर मुझसे ही छुपा करती हो।
मैंने गहरी नजरो से उसे देखा और कहा
तुम तो सिर्फ दर्पण ही सही
मेरे कोई प्रेमी तो नहीं
तुमसे मै क्यों बात करूँ
तुम्हारे नखरे भी अब में सहुं
दर्पण ने कहा इतना अभिमान अच्छा नहीं
क्या अब मै तुम्हारा साथी सच्चा नहीं।
इतने सालो तक मैंने ही तुम्हें युवा रखा है।
तुमने मुझे ही उपेक्षित बना रखा है।
क्या चिरकाल तक तुम जवां रहोगी
न रहोगी तब किस पर दर्प करोगी
उसकी बातो को अनदेखा कर मैंने मुंह घुमा लिया,
उसने भी मुरझाकर अपना मुख बना लिया
फिर अचानक ठिठक- कर रुक गई
भावनाओं में जैसे बह सी गई
कपड़ा हाथ में लिया दर्पण को साफ किया,
हौले से कहा- अब ठीक है वो खिल सा गया,
और बोला आज भी तुम बहुत अच्छी लगती,
मैंने मुस्कुरा कर उसे देखा और कहा"तुम भी".......
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खूबसूरत दिलों को बर्बाद होते देखा है
दर्पण हुं दुनिया का हर रंग देखा है,
बदलते हैं लोग जरूरत के हिसाब से
रिश्तों को भरे बाज़ार में बिकते देखा है,
आग जलाती है फितरत है उसकी, मगर यहां
इंसान को इंसान से जल के राख होते देखा है,
सलीके से जीना सिखाती है कुदरत
मैंने उस कुदरत को तबाह होते देखा है,
शर्मों हया की बात करते हैं जो महफिलों में
बज़्म–ए–शब में हुर्मत उतारते देखा है,
पुराने चीजों के शौक़ रखते हैं जो,
उन्हें भी मां बाप को ठुकराते देखा है,
हर रिश्ते का अंजाम देखा है
अपनो को आस्तीन का सांप बनते देखा है,
बची कहां अब इंसानों में इंसानियत
इंसानियत को मैंने दम तोड़ते देखा है।।-