नफ़रत के शहर में, मैं "प्रेम" का गाँव ढूँढता हूँ
सब ख़त्म होने पर भी जीने की वज़ह ढूँढता हूँ।
हादसों के शहर मेें तरसते है हम मरहम को
पत्थर दिल मेें भी मैं मासूम "ज़ज्बात" ढूँढता हूँ।
खिलता रहा कमाल कीचड़ मेें लाज़मी है "प्रेम"
कांटों संग बसे अपने उस "वज़ूद" को ढूँढता हूँ।
तुमने देखा क्या? कहीं जहां बस्ती हो इंसानियत
देह की चाह की दीवानगी को 'रूह' मेें ढूँढता हूँ।
मन मार बैठे देखे है, हालतों के मारे कहीं इंसान
फ़िर से सब मेें जीने का मैं वो हौसला ढूँढता हूँ।।
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