पटरी पर चली जा रही है
इधर उधर चाहे कैसे भी नजारे हों
मंजिल तो वहीं है जहां पटरी ले चले
कब कोई बेवजह चेन खींच देता है और रुक सी जाती है
कभी घंटों खड़ी रहती हरी झंडी के इंतजार में
ये चलती है पीछे बैठे मुसाफिरों के लिए
इन आशाओं, उम्मीदों और विश्वास के साथ
कि देर सबेर ही सही, पहुंचाएगी जरूर
यूं कभी धुंध भी छा जाती है रास्ते में
और रफ्तार धीमी करनी पड़ती है
अपने लिए नहीं, पर पीछे बैठे मुसाफिरों के लिए
ये वही मुसाफिर हैं जो कचरा करते हैं
उसी ट्रेन में, जो उनके लिए
सर्दी गर्मी दिन रात की परवाह किए बिना
बेझिझक बेहिसाब, चलती जाती है
चलती जाती है
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