मैं जमीर हूँ तुम्हारा अभी सो रहा हूँ,
गर बात इज्जत पे आए तो जगा देना।
वो जो जलील करता है न तुमको हमेशा,
मिटा दूँगा उसे उसको ये बता देना।।
-ए.के.शुक्ला(अपना है!)
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जमाने भर की डिग्री का क्या करोगे
जब जमीर ही तूम्हारा मर चुका है।।-
दिन किसी तरह से कट जाएगा सड़कों पे
शाम फिर आएगी हम शाम से घबराएँगे....
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अता ज़मीर-ए-वजू जरा तू भी कर जज्बात,
ख़्वाहिश तेरी अब मुक़द्दस 'आयतों' सी है !!-
बरसने दे ये मेघ...
बरसने दे ये बदरा....
तुम या तुम्हारी दुनिया न रोक सकेगी ये सैलाब...
हमदर्दी के हजारों बांधों मे वह काबीलियत कहाँ....
बहाकर ले जा ये मायूसी के घरोंदे...
उडा तू दे जा निराशा की ये फसलें..
डूबा दे ये कडवी यादें तू आब ए चश्म मे...
तोड दे ये गिले-शिकवे की जमीर को चुभती बेडियां..
पर बचा लेना तू अपने वजूद को...
जुदाई न हो तेरे जमीर की तुझसे...
क्योंकि कयामत के बाद ही होता है नया आगाज...
ये वसीयत तो सदियों से चली है....
शर्मसार हो जाएंगे ये बादल..
छुपा लेंगी अपना रुख ये बिजलियाँ...
देखा न होगा किसीने ऐसा सैलाब उमड़ा
जो हो बरबादी से आबादी तलक के
सफर का चश्मदीद गवाह...
बरसने दे ये मेघ...
बरसने दे ये बदरा....
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खुद के जमीर को बेच डाला झूठ के बाजार में
इसलिए आईने से डर गए तुम|
मासूमियत का नकाब ओढ़कर चेहरे पर
ना जाने कितने ही दिलों को छल गए तुम|
बेदर्दी से किसी के अरमानों को कुचलकर
फिर आज क्यूं इतना खौंफ से भर गए तुम|
किसी की बेबसी और लाचारी का फायदा उठाकर
क्या जाने कितनी ही मौतें मर गए तुम|
आईना कभी झूठ नही बोलता यह जानकर
इसलिए तो आज आईने से डर गए तुम|
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वो तो महज प्यास थी , फिर भी सिंदूर बंटवा ली
मैं तो भूख हूँ , इंसान का जमीर भी बिकवा दूँ !!-
रोज़मर्रा की खबरें ओढ़ कर "ज़मीर" अभिमानी हो गया,
इंसानियत मेरी भी कुलबुलाती है, हैवान बनने को।
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लोलुपता की अंधड़ में, आंखे मेरी यूँ चकराई है,
ज़मीर के चीथड़ो पर बैठ, बेईमानी मुस्कुराई है-