सपनों को कर के काबू में,
हम पंख लगा उड़ जाते थे..
अब खुद ही यूँ बेकाबू हैं
सपनों से टूट के हारे हैं।
'चाहत है मुठ्ठी में अपनी'
यह सोच के क्या इठलाते थे..
अब आज़ाद, कटी पतंग होकर,
डोरी संग गिरते जाते हैं।
ख्वाहिशें बना कर तकिये सी,
रख गोद में सर को सोए थे
ख्वाबों में नैनों के गुच्छों की,
बातों में खुद को भिगोए थे।
क्या हुआ अचानक ख्वाबों में,
क्यों खुद को अकेला पाते हैं?
खुद कहने लगे हैं ख्वाब हमें,
ख्वाब नकली हैं बदल जाते हैं!
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