माँ मन-आत्मा ही नहीं, रूप है परमात्म का! माँ सृजित मानव, सर्वोच्च रूप है प्रकृति तत्व का! माँ देय है जीवंत देह की, कौन चुका पाया माँ-मातृत्व के देय का! पाकर प्यार और आदर अपनी ही संतान से, स्वयं ही मुक्त कर देती वात्सल्य मातृत्व भाव से!!
जहर को जहर मारता है, कांटे से कांटा निकलता है! यही सोचकर अपनों ने, मुझपर बड़ा उपकार किया! जज्बातों को झोंक दिली आग में और जला दिया! उतार कर खंजर दिल में ज़ख्म-ओ-दर्द और बढ़ा दिया!!
करके कत्ल दिले जज्बातों का, होकर चश्मदीद उतर कर दिल के कटघरे में अनकहे अरमाँ का गवाह बन जाना! कर कबूल, मानकर गुनहगार खुद को, हो सके तो आरज़ू पूरी कर, बेगुनाह हो जाना!!