बिच्छू
नदी की देह में झुरझुरी होती
उसके आँचल में सरकता है जब बिच्छू!
एक बड़ी लहर फेंकती है बिच्छू को किनारे
भुरभुरी रेत का झुरझुराना बिच्छू का डंक चुभना है
ये बिच्छू प्रेम हैं....
झुरझुरी तुम्हारा ख्याल
मेरे आँचल में प्रेम का सरकना
मेरी सम्पूर्ण सत्ता में सनसनी होना है
रात सरसरा रही है चुभा है मानो उसे डंक!
सन्नाटा खामोशी से दर्द को लील रहा है।
Soniya Bahukhandi-
कभी अरमान लिखता हूँ कभी पैगाम लिखता हूँ !!
मै अपने दिल की धड़कन को तुम्हारे नाम लिखता हूँ !!
जहाँ भी हो मिरी हमदम वहाँ से लौट आओ तुम !
तुम्हारे ही ख़यालों को सुबह-औ-शाम लिखता हूँ !!
न जाओ छोड़कर मुझको तुम्हारी याद आयेगी !
तुम्हारी याद में खुद पर नये इल्ज़ाम लिखता हूँ !!
कलम की नोंक के नीचे तिरा जो नाम आ जाये !
मुझे तुम माफ कर देना यही अंजाम लिखता हूँ !!
नज़र भर देख लूं तुमको नशे में डूब जाऊंगा !
यही मैं सोचकर तुमको नशीला जाम लिखता हूँ !!
नही कृष्णा खबर कोई तिरे बदनाम होने की !
करे बदनाम जो तुमको उसे बदनाम लिखता हूँ !!-
धरा की रौशनी को कर अंधेरा क्या मिला तुमको?
न माँगा एक तिनका भी ,हमेशा ही दिया तुमको।
फायदे में तुम अब अपने....इसकी हरियाली तो ना छीनो ,
तुम्हे खुश देख कर खुश है ये...इसकी खुशहाली तो न छीनो।
ना सोचो है ये कमज़ोर ....हमेशा सहती रहेगी.....
गर आ जाये अपनी पे ...तो मिटा देगी ये हर एक को।।
✍️राधा_राठौर♂-
चाय की मिठास
'मीठी' है
'प्रेम' की तरह
'सस्ती' हुई है चीनी
या फिर.. तुम्हारा कुछ
'असर' है इसमें...
सोचकर पीता हूँ
तुम्हे अक्सर...
चाय के साथ
की कुछ 'कम' नही
थोड़ा भी 'असर'
होने देते है मुझपर
ये 'ख्याल' तुम्हारे
तुम्हारी 'मौजूदगी' का-
सूखे दरख्रो को देखकर नाखुश जो हैं तू, तुझे किसने ठगा हैं?
देख मन्नतों के धागों से ये आज भी ये मुरादे पूरी करने में लगा हैं।-
पुरुष जितने जोर से "हँस" सकता है
उतने जोर से "रो" नहीं सकता
औऱ स्त्री जितने जोर से "रो" सकती है
उतने जोर से "हँस" नहीं सकती,
पुरुष औऱ स्त्री में बराबरी नैतिकता के आधार पर नहीं,
दोनों की भावनाओं की व्यक्तता के आधार पर होनी चाहिए,
भावनाएं ज़ब अंकुश रहित होंगीं
तब दोनों अपने आप समानता को प्राप्त हो जायेंगे!!-
__मेरी यादें जियारत करतीं रही मुसलसल हिचकियाँ बनकर,,
कमबख़्त महबूब भी ठहरा sceine का,अफवाहों में उड़ा देता !!-
इक उदासी है थकी-थकी
इक ख़्याल है तरो-ताजा सा,
कल तेरा नाम होंठों पे आ गया
मैं जाने क्यूँ सारी रात जागा था,
पलकों पे अभी भी हैं तेरी निशानियां
इक आँसु अभी भी है आधा सा,
यूँ लगे आजकल ज़िन्दगी
जैसे गाँठ में उलझा धागा सा,
ना चाहकर भी तुझे जीना ही है
ज़िन्दगी ऐसा तुझसे तो कोई ना वादा था,
जाने यह लंबे मोड़ कहाँ से आ गये
"अशोक" तेरा सफऱ तो सीधा-साधा था..!-
इक शबनम की बूँद थी, इक मोती था
कुछ सिप्पीयां, कुछ गिरे मोर पँख...
मैंने चुन लिए, तुम्हें चुनना ना आया
तुमने छोड़ दिए बिखरे कई प्रेम के पल,
मैंने पृथक्करण का आदर किया
अस्वीकरण को स्वीकार किया,
आज बारिश रुकने के बाद एक बूँद
काफ़ी देर तक खिड़की की सलाखों से लटकी रही
मैंने उसे निचे उतरने में सहयोग दिया,
अब एक अकेली भरी-पूरी बरसात से
बिछड़ कर क्या करेगी,
अधर में होने की पीड़ा समझता हूँ मैं...
शुक्रिया, मुझे एक बेहतर इंसान बनाने के लिए!!-