बज़्म-ए-ख़याल   (इक कोशिश)
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Joined 6 March 2021


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भर गए हो तुम मुझमें इतना कि
ख़ुद को रखने की जगह नहीं है

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बीत गए हैं जाने कितने बरस लेकिन
हम अब भी सिनेमाहाल में ही हैं

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तुम्हारें आने से पहले से भी
मैं तुम्हीं से बातें कर रहा था

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देखकर इश्क़ को बिस्तरों में
हँसता है जिस्म,रूह पे साहब

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मेरे दोस्त मुझसे बिछड रहें हैं
मेरे पास अब पैसा नहीं है

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आपके होठों की लाली गर आ जाए मेरे गालों पर
फिर मुॅंह क्या धोना मोहतरमा,दाग बहुत अच्छे हैं

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...गम अपने गम को दूर करने की खातिर
अब अक्सर ही आ जाता है पास मेरे

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ज़ंजीर खींचने पर भी,रुकती ही नहीं
मेरे सफ़र-ए-मुहब्बत की रेलगाड़ी

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चटक गए यादों के शीशे
मुहब्बत मिली दरारों में

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फेंक रहे हो उसे कीचड़ में,मगर वो खिलेगा नहीं
हर किसी में ये हुनर कहाँ ,कि वो कमल हो जाए

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