मेरी रचनाएँ उनके लिए नहीं हैं जो इनकी उपेक्षा करते हैं. दुनिया में एक न एक दिन ऐसा व्यक्ति अवश्य पैदा होगा जो मेरी रचनाओं का महत्व समझेगा, क्योंकि यह संसार बहुत विशाल है और समय अनन्त है.
-
मेरी प्रीत पिया तुम क्या जानो,
जग को बिसराई बैठी हूँ,
तन चंचल मन व्याकुल है
हर पल अकुलाई बैठी हूँ,
---
मन दर्पण तन सोने सा
हृदय पुंज अति शोभित है,
पुष्प प्रेम के राह में तेरी
मैं बिखराई बैठी हूँ,
---
चित्त में तेरी अनुपम छवि
मृदु स्वर की तनिक आतुरता,
अलंकृत श्रृंगार से युक्त
मन को भरमाई बैठी हूँ,
---
प्रेमदीप की शिखा सरीखी
आंच में तपकर सोने सी
चंद्रकिरण की शीतलता युक्त
मैं सकुचाई बैठी हूँ....
---
-
कविता से ही कवि बना हूं ।
कविता में ही विलय होगा।
राग नहीं छीनी है किसी की।
मेरा खुद का लय होगा।
✍️
-
संवेदनाएं....
मेरे अस्तित्व से निर्गत
क्या पहुंच पाती है तुम तक,
अश्रुपूरित मेरे नयन की वेदना
क्या झकझोरते हैं
तुम्हारे हृदय को,
गहरा सूनापन मेरे जीवन का
क्या महसूस कर पाते हो तुम,
मेरा प्रत्येक क्षण ढूंढता है तुममें
प्रेम की बूंदें,
जो भिगो दें मेरा अंत:करण,
मेरे आंचल के एक सिरे को
थामे तुम्हारी उंगलियां,
और धीमा सा स्पर्श पाने की चाह,
आज भी विचलित करती हैं,
मेरी तुमसे आशा
और अतृप्त पिपासा,
मुझे प्रतिपल सीमित करती हैं,
अनुराग आश्वस्त करता है
और आस जीवित करती है....
- दीप शिखा
-
याद आती रही तू यूँ रात भर,
हिचकियाँ सताती रही यूँ रात भर...!!
माँझी न पहुँचा जब तक किनारे तलक,
नदियाँ मल्हार गाती रही यूँ रात भर..!!— % &-
झाड़ू छोड़ आज इन हाथों ने फिर क़लम है थामी
अब चाहे ये जमाना मुझे बदनाम करे या नामी,
लिखने चली हूँ मैं आज एक कविता
चाहती हूँ जो बहे रक्त में बनकर सरिता,
प्रतिद्वंदी चाहे कर दे कविता राख
पन्नों में लगाकर आग,
बुझती ज्वाला में
जो बचेगी एक लौ,
कहलाएगी वो "ज्योति", कर जाएगी वो कविता रौशन
मिल जाएगा फिर काव्य को एक नया मोती,
-
《इक शहर》
इक शहर भीतर बसा रखा है,
एहसाँ है ख़ुदा का इक दर्द छुपा रखा है।
इस शहर में दुख का दरिया सैलाब पर है,
इस शहर का हर शख़्स इक अज़ाब पर है।
शहर-दर-शहर हारने को दौड़ते हैं,
पर ज़िंदगी के पांव कभी न देखते हैं।
दर्द छोटा हो, चाहे बड़ा हो
शहर के आग़ोश में सब तन्हा सिसकते हैं।
ख़फ़ा हो कोई ज़िक्र भी न होगा,
ज़िंदगी मात खाए तो खाए
लज़्ज़त-ए-दर्द-ए-शहर बसा है,
बसा ही रहेगा।
शहर की सांस कभी थमेगी नहीं !!
ज़िंदगी कभी रुकेगी नहीं !!
-काव्यस्यात्मा-
!! दोहा !!
लगा वृक्ष है प्रेम का, अमरबेल का पाश,
फिर काहे यूँ बरस रहा,आंखों से आकाश !— % &-
कल
दो मिनट की
झपकी में भी
मैंने जो स्वयं को
'काव्य' संवारते पाया
क्या था वो ???
क्या काव्य
है मुझको भाया
या स्वयं काव्य ने
मुझे अपने रंग में
रंगने का मन है बनाया!
🌼♥️💮♥️🌸
-
तुम्हारी बाँहों के आलिंगन से
बाँध लेता हूँ मैं इस अनन्त आकाश को.!!
तुम्हारे अधरों के स्पर्श से
पराजित करता हूँ मैं मदिरा की ठनक को.!!
तुम्हारी आत्मा से निकले ओज से
होता है प्रज्वलन मेरे अंधेरों का..!!
तुम्हारी देह का संगीत उतर जाता है
मेरे कंठ में सिर्फ एक आलिंगन मात्र से.!!— % &-