Kamini Mohan   (©कामिनी मोहन।)
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Joined 28 June 2020


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Joined 28 June 2020
20 JAN 2022 AT 11:53

रोटी के लिए झुक गए हैं,
हाशिए पर ही रूक गए हैं।
दड़बे-सी भरी हैं सड़के,
हम जीवन से चुक गए हैं।

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17 JAN 2022 AT 20:02

संक्रमणकालीन
दौर के पार

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14 JAN 2022 AT 17:33











मोहन

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11 JAN 2022 AT 17:08

अपनी सुपरिभाषि

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5 JAN 2022 AT 19:31

काग़ज़ी नहीं है कविता

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4 JAN 2022 AT 20:04

" असर छोड़ जाए "

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3 JAN 2022 AT 21:30

देखो गहरे कुऍं से आवाज़ है आई,
भीतर चट्टान-सा कोई शब्द टकराया।
हृदय के कोटरों तक पहुँचा तो,
कम्पित शब्द देह से टकराया।

त्यागा जिन कल्पनाओं को,
दिगंत परिक्षेत्र तक जाकर लौट आया।
सूर्यास्त और सूर्योदय की कविताई
समंदर की रक्तिम लहरों पर लहराया।

समंदर की छाती पर तैरता है,
उभरता लहराता ख़ुद को देखता आया।
जैसे आईने में चेहरा उभरता,
प्रतीक्षा के पाँव जिधर उधर ही देखता आया।

घायल वर्तमान को अतीत कर आया
आर्तनाद को दफ़न कर आया।
पर धँस जाता हूँ ख़ुद में चिंता करते-करते
विचार की कविता पर मिट्टी डाल आया।

मैं कौन हूँ! क्यों हूँ!
जानने का प्रयास छोड़ आया।
किताब के आख़िरी पन्ने के बाद,
जैसे कुछ भी पढ़ने को बचा न पाया।

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2 JAN 2022 AT 13:41

मुर्दा न रहो
देखो बदन ज़िंदा है
नज़र उठाओ
देखो वक़्त की रफ़्तार ज़िंदा है।
(पूरा अनुशीर्षक में )

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1 JAN 2022 AT 16:50

फ़ासला कोई नहीं, है परस्पर - गुंथन।
चिरंतन शिव-शक्ति का, है निरंतर द्युत-मंथन।

मन-शरीर-आत्म का, है पारस्परिक संबंध।
ज्ञान, भक्ति कर्म का, है त्रि-पथ अनुबंध।

भाव कुण्ड का, है निर्मल कथ्य।
कर्तव्य रथ का, है सारथी सत्य।

है एक ही सत्य, है एक ही मूर्ति।
सत्यं शिवं सुंदरम, है लासानी त्रि-मूर्ति।

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31 DEC 2021 AT 20:13

फिर समय ने करवट ली,
समय ने समय को गति दी।
आख़री - आख़री इति छोड़,
समय ने झट-पट नव-स्थिति दी।

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