रोटी के लिए झुक गए हैं,
हाशिए पर ही रूक गए हैं।
दड़बे-सी भरी हैं सड़के,
हम जीवन से चुक गए हैं।-
-(असिस्टेंट प्रोफ़ेसर)
~ प्रकाशित काव्य संग्रहः 2011
‘तरु-अंतस्ः प्रेम का... read more
" अतीत का विस्तार "
यहाँ संस्कृत के श्लोक गूंजते हैं
वेद की ऋचाओं को सुनने देवता गण बैठते हैं
हड़प्पा- मोहनजोदड़ो के नगर बसे हैं
देवनागरी, पालि और प्राकृत लिपियों में
प्राचीन इतिहास बोलते हैं।
(पूरा अनुशीर्षक में )-
हाँ मैं जिम्मेदार हूँ,
हर मुश्किल से लड़ने को तैयार हूँ।
अम्बर से मनुहार करो,
मुझे चाँद पार स्वीकार करो।
पाला-पोसा सब कुछ है नूतन प्रखर,
जलाता ख़ुद को हर ताप सहकर।
अमिट सौन्दर्य पुष्प-सा खिलता,
अंतस् जीवन संगीत सुनता।
व्यथा से चीखता और पुकारता,
एक पहर ही चाँद पिघलता।
अनल ताप सहता और सुकुमार बनता,
शाश्वत साझेदारी के पथ को चुनता।-
देखो गहरे कुऍं से आवाज़ है आई,
भीतर चट्टान-सा कोई शब्द टकराया।
हृदय के कोटरों तक पहुँचा तो,
कम्पित शब्द देह से टकराया।
त्यागा जिन कल्पनाओं को,
दिगंत परिक्षेत्र तक जाकर लौट आया।
सूर्यास्त और सूर्योदय की कविताई
समंदर की रक्तिम लहरों पर लहराया।
समंदर की छाती पर तैरता है,
उभरता लहराता ख़ुद को देखता आया।
जैसे आईने में चेहरा उभरता,
प्रतीक्षा के पाँव जिधर उधर ही देखता आया।
घायल वर्तमान को अतीत कर आया
आर्तनाद को दफ़न कर आया।
पर धँस जाता हूँ ख़ुद में चिंता करते-करते
विचार की कविता पर मिट्टी डाल आया।
मैं कौन हूँ! क्यों हूँ!
जानने का प्रयास छोड़ आया।
किताब के आख़िरी पन्ने के बाद,
जैसे कुछ भी पढ़ने को बचा न पाया।-
मुर्दा न रहो
देखो बदन ज़िंदा है
नज़र उठाओ
देखो वक़्त की रफ़्तार ज़िंदा है।
(पूरा अनुशीर्षक में )-