वो आंसू खुशी के थे, या सूनेपन का छलकना था,
जब ओहदा बढ़ गया था बेटे का शहर बदलते ही !-
कहीं ज़ियादा बड़ा ओहदा है मौत का उस ज़िंदगी के आगे,
आखिर एक पूरी उम्र खप जाती है वहाँ तक पहुँचने के लिए..-
शब के अँधेरे में
मैं देख रहा होता हूँ,
बड़ी इमारतों का..
झोपड़ियों को चिढ़ाना;
और..
देखते ही देखते
यकायक_
तेरा चेहरा तेरा चेहरा!!-
उम्र में या फिर औहदे में बड़ा
हो जाने से फ़र्क़ क्या पड़ता है..
असलियत में तो सज़दे में झुकने
से ही इंसान क़ाबिल बनता है..!-
रिटायर होने की उम्र हो चुकी
तन्हा अकेले बैठ सोचता हूं कभी
पढ़ा लिखा बहोत महेनत मजदूरी की
अच्छी नौकरी मिली ऊंचा ओहदा मिला
पैसा भी बहोत कमाया लुटाया भी बहोत
सफलता के मक़ाम को नीचे नहीं आने दिया
बेटी को राजकुमारी और बेटे को राजकुमार बनाया
बीवी को दिल की रानी की तरह पलकों पे बिठाके रखा
क्या कुछ नहीं किया जिंदगी में फिर भी लगता है कुछ रह गया
तब अंतर मन के किसी कोने से एक धीमी सी आवाज़ आयी
मानो मुझसे कह रही हो .. " जीना बाकी रह गया "-
ओहदा मेरे शख्सियत का कम से कम इतना हो,
जो मैं हाँ कहूँ तो हाँ हो,
जो मैं ना कहूँ तो ना!!
-
सब उन्हें ही पैसे कम देके आते हैं
जो रोज़ रोड़ पर ठेला लगाते हैं
कमाई और ओहदा पता चलते ही
लोगों के बर्ताव बदल जाते हैं-
कहा किसी ने मुझसे कि,
दरवाज़ा बड़ा बना रहा हूँ मैं अब अपने घर का..
कुछ दोस्तों की औकात बढ़ गई है दो पैसे कमाने के बाद!
हमने भी कह दिया,
मत बढ़ाओ ओहदा अपने दर का...
जो झुक के आ गया समझना वो अपना है
बाकी सब करते हैं मतलब से याद!-