कि गुज़रा है जो बेहद इन उलझनों से
सुलझने का राज़ बखूबी वही बताएगा
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और जिसने महसूस ही नहीं किया कभी
इन उलझनों को
वो महज़ आपको बातो में ही घुमाएगा-
रोज़ टूटता हुआ देखती है तुम्हे
बहुत मुश्किलो से संभालती हु खुद को
तुम्हे यूँ बिखरता हुआ देख रूह तक काँप जाती है
वाकिफ़ हूँ तुम्हारी हर कशमकश से
ज़िन्दगी अब पहेली बन कर रह गई
जो सुलझती तो है मगर उलझने के लिए
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कुछ इस क़दर टूट के चाहा उसने मुझको,
अपना भी नहीं,गैर का भी होने न दिया मुझको,,,
बढ़ती गई बातों मुलाकातों की फेरहिस्त,,,,
हम देखते रह गए,कुछ इस तरह यार ने उलझाया मुझको,,,,,!!-
कैसे कैसे खेल ये कलम
शब्दों के साथ कर जाती हैं...
दुनिया भर की उलझने उससे लिखवाती हूँ...
वह मेरी भी उलझने बयां कर जाती हैं....
उलझने सुलझती ही नहीं हैं...
इस कलम से मैं और उलझ जाती हूँ...
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अपना सुकून:-
"क्यों लग रहा है मुझे ?
जैसे उलझ कर रह गए हो तुम ।
ज़िन्दगी की इस कश्मकश में।
अपनों की भीड़ में ।
ख़ुद का वजूद तलाशते - तलाशते।
डरती हूं ।
कहीं ऐसा ना हो कि ।
दिल की बातें दिल में रख कर।
औरों को खुश रखते - रखते ।
बेवजह यूं ही उन पर मरते - मरते ।
एक दिन कहीं खुद को भी ना खो दो तुम।
है अधिकार नहीं मेरा तुम पर ।
फ़िर भी एक सीख तुम्हें दिए जाती हूं ।
हज़रों की भीड़ में ।
खुद का वजूद मत मिटने देना।
ज़रूरत पड़े अगर तुमको।
तो सिर्फ़ अपने सुकून के लिए जीना।
तुम यूं खुद को दूसरों पर मत मिटने देना"-
ज़िन्दगी की उलझनों में उलझते-उलझते।
हर रोज़ थोड़ा खुद ही सुलझती जाती हूं।-
लिखते रहे दास्तां हम दोनों दर्द की,
वो टूटे दिल की,हम फँसी मजबूरियों की।-