'प्रेम में पड़ी स्त्री'
(अनुशीर्षक में पढ़े🖇️)-
अम्बुधि उन सभी उक्तियों का जिनकी धारा... read more
तू तपता है , मैं पिघलता हूँ,
तू सहता है, मैं तिलमिलाता हूँ।।-
जब पास होते हो तो नखरे दिखाती हूँ,
जब दूर होते होते हो तो अश्क़ बहाती हूँ।।-
नए दौर के कुछ लड़के अब भी पुराने रह गए,
बदन चूमना भूल वो ज़ुल्फ़ सँवारते रह गए।
कौन जाहिल है जो इश्क़ को गंदा बताते है,
हमारे 'मालिक' तो हमें खुदा ख़ुदा कहते थक गए।
ये कौन आशिक़ है जो इश्क़ में उतार देते है कपड़े,
हमारे वाले तो आज भी दुपट्टा संभालते रह गए।
इक दिन बहुत प्यार आया औऱ हम होश गवा बैठे,
शाम ढली, सूरज निकला, हम उनकी बाहों में सोते रह गए,
इक हादसें में सारा हुस्न ख़ुवा बैठी औऱ पहुँची उनके पास,
वो ख़ासे पाग़ल, मिरे चेहरे के हर दाग़ चूमते रह गए।
ज़रा सी तकलीफ़ में भी चिल्लाती हूं उनका नाम ऐसे,
जैसे लेते है नाम बच्चे माँ का जो मेले में बिछड़े रह गए।
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यक़ीनन मत करो मुसलसल किसी पे एतबार अंधा,
मुश्किल वक्त में अक्सर अपने ही नहीं देते है कंधा।
ये गज़ले नज़्में तो पिछले जडीले आशिकों की बातें है,
नए वालों ने तो बस नाम कमाने को बना लिया है धंधा।
जिसको वो दिन रात बुलाती है बाँवरो की तरह अपना,
री पगली! क्या जाने वो उसे ही समझता है अपने गले का फंदा।
पड़ के इश्क़ में लड़कियां बाँध लेती है बेवकूफ़ी की पट्टी,
बढ़ाती है नज़ाकत से क़दम उस दलदल में जो होता है गंदा।
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मुहब्बत के बाद आई किस जहाँ से ये नफ़रत,
मुहब्बत को छोड़ आगे बढ़ गई इतनी ये नफ़रत।
इंसा को इंसा नहीं पसंद ना बर्दाश्त हैं अब बातें,
किसने भर दी है इनके लहूँ में इतनी ये नफ़रत।
आम होता है ख़ास होता है होता है कुछ नयाब,
सबकी होतीं है वजह करने को इतनी ये नफ़रत।
घँटों तक सुनने वाला नहीँ करता दिनों तक फ़ोन,
जाने कैसे कर ली हैं उसने मुझसे इतनी ये नफ़रत।
बचपन मे होतीं थी पागल लेकर जिस तारीक को,
करने लगी हूँ जाने कैसे अब उससे इतनी ये नफ़रत।
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गर अपना कोई रूठे तो मना लेना चाहिए,
रिश्तों में पड़ी गाँठ को सुलझा लेना चाहिए।
किसी के सर का बोझ बनने से बेहतर है,
जान छोड़ बीती हुई याद बन लेना चाहिए।
गर रोता रहता है पड़ के वो तेरी मुहब्बत में,
दिल का मकाँ छोड़ कही ईटे का घर लेना चाहिए।
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रिश्ते निभाते निभाते कैसे गहरे हो जाते है,
फूलों के पास काटो के जैसे पहरे हो जाते है।
कैसे इक अज़नबी बन जाता है साथी साँसों का,
कि इक दिन ना सुने तो जैसे कान बहरे हो जाते है।
दूर रह के मैं चाहे लाख छुपा लूँ बातें दुनिया की,
इक झलक से ही सब नेहले पे दहले हो जाते है।
ये कैसी दीवानगी में डूबी रहती हूँ मैं अब आजकल,
उसके सर के बाल भी माथे पे सजे सेहरे हो जाते है।-
शाख से पत्ते कुछ इस तरह झड़ जाते है,
जैसे सारे रिश्ते इक दिन बिखर जाते है।
झगड़े-तमाशे रोज़ होते आशिकों के बीच,
निभाने वाले फ़िर कैसे भी निभा ले जाते है।
आख़िर झगड़ कर मैंने सब खत्म कर दिया,
फ़िर मैं ही पूँछती हूँ रिश्ते कैसे निभाए जाते है।
मुहब्बत का मारा अहमक़ रोता रहा इस क़दर,
मासूम पे इस कदर तो दर्द नही बरसाए जाते है।
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मैंने ईश्वर से जब जब माँगा,
माँगी अपने पिता की सुरक्षा,
मुझे मालूम है पिता के होते,
मुझे नही फैलाने पड़ेंगे हाथ,
फ़िर कभी भी ईश्वर के आगे,
पिता के होते दुख छोटे लगेंगे,
पिता के होते नही छिनेगी छत,
पिता के होते नहीं छीनेंगे स्वप्न,
पिता के होते ईश्वर समीप है।
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