किसी की राह देखते हुए किवाड़ पे नजरें टिकाए स्त्री, दीवार पे टंगी घड़ी की टिक-टिक के अन्तराल का समय भी महसूस कर लेती है।
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एक अलग ही दिन होता था.. एक अलग ही रात होती थी.. जब उससे बात होती थी,
यह जो ज़िन्दगी दूर सी है आजकल.. यह बहुत पास होती थी.. जब उससे बात होती थी,
तन्हा थे हम पहले भी.. पऱ इतने ना थे ज़ुस्तज़ु-ए-मंज़िल में
इन सपनों की अथाह राहों में.. तब वो मेरे साथ होती थी.. जब उससे बात होती थी,
वो दिन भी क्या दिन थे.. जब ख़ुशियों का ठिकाना पता था मुझे
उसकी पारस सी उँगलियाँ.. जब मेरे दोनों हाथ होती थी.. जब उससे बात होती थी,
स्पर्श के एहसास मुरझाते कहाँ थे.. मन की पंखुड़ियों में तितलियों के झुरमुट से थे
गुलमोहर के फूलों सी ख़ुश्बू.. मेरे हर स्वास होती थी.. जब उससे बात होती थी,
यह जो ज़िन्दगी दूर सी है आजकल..
यह बहुत पास होती थी.. जब उससे बात होती थी..!-
बेकरारी है मेरे रातों में
मगर तु चैन से सो जाता है
इज़हार है मेरे लफ़्ज़ों में
मगर तु सुन कहां पाता है
इंतजार है मेरे हर लम्हों में
मगर तु नहीं आता है।
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फिर जो आओ तो खुद को भी साथ ले आना
मुझसे बात करने को थोड़ी बात ले आना
यूं तो फासलों की रहनुमाई है ज़माने में
भूली कोई मीठी सी मुलाकात ले आना
मैं गुलदान में थोड़ी सी जगह बचा के रखूंगा
दुपट्टे में लपेट कर थोड़े जज़्बात ले आना
ये उजाले के साजिश हमें मिलने नहीं देंगे
ठीक से गर मिलना हो तो इक रात ले आना
जिनकी बातों में हमारे इश्क़ का ये हश्र है
उन दोस्त और पड़ोसियों की मालूमात ले आना
तुम ना आते हों अकेले ये जानता है "निहार"
तो खुद में समेट, मुझे ही इफरात ले आना..!!
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आईने में देख कर सफ़ेद बालों को
सोचता हूँ छोड़ दूँ.. अब तेरे ख़यालों को,
पऱ दिल है के.. आज भी जबाब ढूंढता है
कहाँ छुपाऊँ मैं.. तेरी साथ जीने के सवालों को,
चलो.. तेरे इंतज़ार का इक़ औऱ साल सही
तेरा शुक्रीया.. यूँ ही सही.. गुज़र तो गया मैं उम्र के इतने सालों को,
क्या कहूँ.. कैसा है यह मुहब्बत का मकाँ मेरा
देख ना.. दीमक भरे दरवाज़े हैं.. औऱ जंग लग गया है तालों को,
उफ़्फ़..., काश तू नज़र भर दिख जाए कहीं
के देखे.. बहुत दिन हुए उजालों को..!-
"यह क्या है...यह क्यूँ है
के क्यूँ लगे के..कोई मुझे आवाज़ देता है"
Please read in caption..!-
वो चोरी-छुपे आज भी मेरा दीदार करती है,
हाँ वो आज भी......
आज भी मुझसे प्यार करती है ...-
'नैना', नैनों से तेरा इंतज़ार करती रही,
इस तरह मैं ख़ुद को बेकार करती रही.....-
कोई सावन का मौसम है.. औऱ पहरों तक बरसातें हैं
तुम क्या जानों तुमसे कहने को.. कितनी सारी बातें हैं,
अब... तुम मिलो तो मैं बताऊँ तुम्हें
के इक़ लंबा सा मरुस्थल है
औऱ मेरा सूखा सा हर इक़ पल है,
उदासी के रेत के इन टीलों में
काश... तुम बारिश सी मिलो मुझे
मैं घूँट-घूँट उतारूँ प्रिये... बूँद-बूँद गिनूं तुझे,
तेरे ख़्याल विचरते मीलों तक औऱ थकी-थकी सी आँखें हैं
कहीं से आके हाँक प्रिय.. यह रुकी-रुकी सी मेरी साँसें हैं,
कोई सावन का मौसम है.. औऱ पहरों तक बरसातें हैं
तुम क्या जानों तुमसे कहने को.. कितनी सारी बातें हैं,-
दिल करता है के इन सर्दियों में तुम्हें देखूँ
फिऱ से.. वही काली ऊन की बंद गोल गले की
काली स्वेटर पहने तुम्हें,
गले में वोहि काला पोंचो
औऱ वो.. वो उसकी पीली-पीली सी झालरें,
उफ़्फ़.. सफ़ेद पलाजो से झाँकते वो गुलाबी से तुम्हारे नाज़ुक पैर..,
काश.. तुम्हारे साथ वो ख़ूबसूरत सी सर्दियाँ फिऱ से लौट आयें...!-