दास्तान_ए_बाल युवा पीढ़ी..
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मैं ,ना तो कोई परिन्दा बन सकती हूँ, ना ही कोई इठलाती हवा, जो बिना कुछ पता हुये भी, अपने लक्ष्य तक पहुँच जाती हैं,
मेरे बस में तो केवल एक 'पतंग' ही है, जो अगर टूटे, तो भी फिक्र नहीं ,पर टूट कर भी तुम्हारे छत पर गिरे,
मेरे भाग्य की डोर बस इतना गुनाह करना चाहती है...।।
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सोचता हूँ कभी तेरे दिल मै उतर कर देख लूं
आखिर कौन है तेरे दिल मै जो मुझे बसने नही देता-
आखिर चले ही जाना है सब को..........
फिर मेरे जाने पर ये आँखे नम क्यों..........-
एक ही जख्म नहीं
पूरा जिस्म ही जख्मी है
दर्द भी हैरान है
आखिर कहां कहां से उठे-
हर सितम बे सितम से वक़्त सितम ढाता है,
खुद तो गुज़र जाता है हमे वही छोड़ जाता है।-
तू आवाज़ तो उठा एक बार ये
दुनिया तेरे कदमों में आएगी यूं
तो तेरी खामोशी ही तेरी मौत की
वज़ह बन जाएगी-
उसकी हर चाल आखिर तब नाकाम हुई,
उसकी हर चाल से वो जब वाकिफ़ हुई।
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