/अभिमन्यु /
(प्रथम सर्ग)
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आज इस नए दौर की महाभारत में
जनतंत्र का अभिमन्यु बचेगा क्या?
इस तरह के कपट-युद्ध में
मारा ही जाएगा जनतंत्र का अभिमन्यु भरी दोपहरी,
चलो हम सब मिल-जुल कर सोचें कि
कैसे बचाई जाय अब इस जनतंत्र की साख
आज इस रण-भूमि में सूर्यास्त होने के पहले ही।-
जीवन की महाभारत में
एक के बाद एक लक्ष्य साधते हुए
अर्जुन समझ रही थी मैं खुद को....
सोचा बस
अब तो....
श्री कृष्ण से
ज्ञान पाना बाकी है
एकाएक मालूम पड़ा
निहत्था अभिमन्यु हूं
मैं तो
..
..
और अभी तो मेरा...
'चक्रव्यूह' में फंसना बाकी है !!!
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साध लक्ष्य को उर पथ पर,
नगपति सम तुम धीर धरो।
निज जीवन के चक्रव्यूह में,
"अभिमन्यु" जैसा वीर बनो।।-
महाभारत युद्ध के तीन बहुत महत्वपूर्ण नियम थे।
1. एक वीर से एक वीर ही लड़ेगा।
2. निहत्थे पर कोई वार नहीं करेगा।
3. युद्ध समान बल के व्यक्तियों में होगा, मतलब अतिरथी अतिरथी से, महारथी महारथी से, पैदल पैदल से ही युद्ध करेगा।
अभिमन्यु जब चक्रव्यूह भेदकर बीच में पहुँच गए थे तब उनको सारे अतिरथी, महारथियों ने घेर लिया, वे अकेले पूरे झुंड से जूझ रहे थे और वे जब निढाल और निशस्त्र हो गए तब सबने मिलकर उनका वध किया था। अर्थात एक बार में ही कौरवों ने युद्ध के सारे नियम तोड़ दिए थे।
उसके बाद पांडवों ने एक एक करके युद्ध के सारे नियम तोड़े, और जब जब कौरवों ने नियमों की दुहाई दी उन्होंने अभिमन्यु वध का उदाहरण देकर कौरवों का मुँह बंद किया।-
खुशियों को आंसुओं से स्वागत हो,
बंदे के लबों पे ईबादत हो।
हम पिरोयें शब्दों को ऐसे,
हर-एक मुल्क में फैली महज इंसानियत हो!!-
।। चक्रव्यूह...।।
आयु नहीं साहस लिखता है
रणभूमि का सार ।
वीर वही जो सुधि मन साधे
करे शक्ति विस्तार ।।
(अनुशीर्षक में पढ़ें)-
उसके रण कौशल और रणनीति से जब हर एक योद्धा हारा था
छल, कपट, चाल और प्रपंच से तब वीर अभिमन्यु को मारा था-
ये
तसव्वुर नहीं
अपितु मंजिल है ..२
जीतूंगा जंग
ये फितूर है ।
चाहे लाख गर्दिश ए
वक़्त क्यों न हो ...२
फेदुंगा असफलता का चकरव्यूह
वो अभिमन्यु हूं ।-
//अभिमन्यु के उद्गार//
माँ सुभद्रा को पिता अर्जुन से मिलाया,
हे कृष्ण! आपका अभिनन्दन।
माँ द्रौपदी की लाज को सभा में बचाया,
हे कृष्ण! कृतज्ञ अंतर्मन।
सारथी बन पिता अर्जुन का रथ चलाया,
हे कृष्ण! आपका वंदन।
गर्भ में ही मुझे चक्रव्यूह भेदन सिखलाया,
हे कृष्ण! आभार भगवन।
छः द्वार भेदे, सप्तम पर अपनों ने गिराया,
हे कृष्ण! हुआ विह्वल मन।
क्यों मैंने सच्चाई से न आपको बुलाया,
हे कृष्ण! यह मेरा क्रंदन?
क्या था सप्तम द्वार पर मुझमें 'मैं ' समाया,
हे कृष्ण! करूँ स्वयं से प्रश्न?
कदाचित मुझे मेरे ही 'मैं ' ने हराया,
हे कृष्ण! छूटा श्वासों का बंधन।
मुक्त आत्मा ने गौ लोक का पथ अपनाया,
हे कृष्ण! हुए आपके दर्शन।
नमन। आपको नमन।-