अच्छा हे की रिश्तो का कब्रिस्तान नहीं होता,
वरना जमीन कम पड़ जाती|-
ग़ज़ल:
कुछ भी तेरे बाद नहीं है,
ये तक तुझको याद नहीं हैं
इश्क़ मकाँ है गिरने वाला,
जज़्बे की बुनियाद नहीं है,
तेरा होना हक़ है मेरा,
ये कोई फ़रियाद नहीं है,
दिल जंगल तो बंजर है अब,
गोशा इक आबाद नहीं है,
एक जहाँ में कितनी खुशियाँ,
लेकिन कोई शाद नहीं है,
शेर कहा करता था मैं भी,
पर अब कुछ भी याद नहीं है,
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हमीं में शायद है ऐब कोई,
कि यार अब घटते जा रहे हैं
चला किए थे जो चार साये
वो चार अब घटते जा रहे हैं
(More in caption)-
मसरूफ़ियत का बहाना देकर,
यूँ फासला ना बढ़ा
क्या काफी नहीं ये तन्हाइयां,
अब ये दूरी ना बढ़ा
है बरसती बरसात बाहर
मेरे अंदर की जलन और ना बढ़ा
सुकून है उसकी मौजूदगी से,
उसे पाने की तलब और ना बढ़ा
आरज़ू यूँ ही सिमट के ना रह जाए,
मेरी ख़ामोशियों को तू और ना बढ़ा
था बस साथ यही तक,
तो ए खुदा ये ज़िन्दगी तू और ना बढ़ा
© - तरपल
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मिलते हैं मेरी जान तुम्हीं से बदन बग़ैर,
अपना लिबास ए जिस्म उतारे हुए हैं हम,
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उस मुसव्विर के हुनर को देखकर,
रंग ख़ुद में भर लिए तस्वीर ने ,-
कौन कहता है के वह पनघट सिर्फ तुम्हारा है,
हमने भी नमाज़े अदा की है गंगा में वज़ू करके !!
کون کہتا ہے کہ وہ پنگھٹ صرف تمہارا ہے...
ہم نے بھی نمازیں ادا کی ہے گنگا میں وضو کر کے !!-
सभी मसरूफ़ हैं दरिया किसे मिलकर बनाना है
हर एक क़तरे को अब अपना अलग सागर बनाना है
किसी मासूम को फिर से कहीं बहला के फुसला के
उसे बारूद का क़ाबिल सा कारीगर बनाना है
न जाने शाम को कितने सलामत लौट पाएँगे
हमें हर शख़्स का खाना भी तो गिनकर बनाना है
वजह कुछ भी नहीं है बस ख़ुमारी है सियासत की
सुबह तक बाग़ को कैसे भी कर बंजर बनाना है
किसे हथियार बनकर जान लेने की तमन्ना थी
हर एक पत्थर को लगता था हमें तो घर बनाना है
तमाशे हर नसल के पेश होंगे सब्र रख 'क़ासिद'
हमें इस मुल्क़ को आख़िर में चिड़ियाघर बनाना है-
कुछ वक्त अपने लिए निकाल लेती हूं,
साँसों का हक यूँ ही अदा कर देती हूं
कोई पूछे क्या पाया तुमने इस ज़िन्दगी में,
तो मुस्कुराकर,
अपनी नज़्मों से भरी हुई किताबें उन्हें दिखा देती हूं
© - तरपल-