जो त्याग वियोग के छंद सभी, श्रृंगार की एक ही जात लिखे
एक शायर हो जो हम दोनों को सब ग़ज़लों में साथ लिखे
एक बाग में खिलता फूल कोई कांटों की कोमल लचकन भी
कुछ थके हुए बागानों पर रेशम की थोड़ी उलझन भी
एक भोर की खुलती आँख से ओझल ओस के सहमे मोती हो
या सर्द फिज़ा जो नदियों का आलिंगन करके रोती हो
मुझको भीनी माटी लिख दे तुझे बूंद लिखे बरसात लिखे
एक शायर हो जो हम दोनों को सब ग़ज़लों में साथ लिखे
(To be continued........)
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1. वो ख़्वाब में मेरे जीती है मैं जिस लड़की पे मरता हूँ
2. मैं उसको चाँद ... read more
उसकी उपमा में ग्रन्थ लिखो
पर कम लगता है बाबू जी
( In Caption)-
तेरे सब ख़त तेरे कंगन तेरा झुमका निकाले
कोई आए हमारे घर से सब कचरा निकाले
उसे कह दो गले तक रूंधकर के भर गया हूॅं मैं
हमारी आँख में ठहरा हुआ दरिया निकाले
ख़ुद ही को नोचकर के चीखता है रोज़ एक लड़का
कोई मेरी रगों में घुल चुका चेहरा निकाले
दबे रौशन सितारे चांद को उकसा रहे हर शब
निगाहें फाड़कर सूरज पे सब गुस्सा निकाले
हजारों ख़ाब हैं, तुम हो, उम्मीदें हैं, भरोसे हैं
ज़रा सी ऑंख से कोई भला क्या क्या निकाले
कोई 'क़ासिद' हमारी रूह पर रहमत नई बक्शे
हमारे जिस्म से नोचे हमें ज़िन्दा निकाले-
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बे-मन जो गा रहे थे वो सारे सफ़र के गीत
कच्चे ही रह गए हैं न आधी उमर के गीत
तुमको जहाँ की शोहरतों के बोल मुबारक
हमको मुबारकाँ मेरे सस्ते हुनर के गीत
सरवत फ़राज़ मीर ने ग़ालिब बशीर ने
एक उम्र तक लिखें हैं सबने बे-बहर के गीत
हमने भी कहाँ शौक़ से ग़ज़ल लिखी कोई
हमको भी मयस्सर हुए कहाँ नज़र के गीत
मौजें ही डुबाती हैं समन्दर में कश्तियाँ
साहिल पे आ के टूटते हैं हर लहर के गीत
'क़ासिद' कभी पतझड़ की हवाएँ सुनें अगर
उनको बहुत रुलाएंगे झड़ते शजर के गीत-
उसकी उपमा में ग्रन्थ लिखो
पर कम लगता है बाबू जी
( In Caption)-
अपनी तमाम उम्र की उजरत लिखे कोई
हमको भी इत्र डालकर के ख़त लिखे कोई
कोई तो मेरे नाम को जागीर समझ ले
औरों से चीखकर कहे कि मत लिखे कोई
कर दरकिनार ख़ामियों के सारे फ़लसफ़े
हमको जहाँ की आठवीं हैरत लिखे कोई
तावीज़ बनाते हुए काग़ज़ की एक तरफ
दोनों का नाम जोड़के आयत लिखे कोई
बेफ़िक्र गिरेबाँ पकड़ के खींच ले हमें
माथे पे लब से लफ्ज़-ए-मोहोब्बत लिखे कोई
'क़ासिद' ग़ज़ल के आख़िरी अशआर में लिखे
और आख़िरी अशआर को जन्नत लिखे कोई-
तुम्हीं पे मरते हैं पर गज़ब है तुम्हीं से साँसें उधार लें हम
सुकूँ की बस इतनी इल्तिजा है तुम्हें मुक़म्मल निहार लें हम-
मेरे सीने-काँधे तेरा सर जाना
मुश्किल जैसे क़ाज़ी का मन्दर जाना
ख़ाब भरम उम्मीद भरी इन आँखों से
पड़ जाता है आँसू को बाहर जाना
हमको क्या मालूम कमा करके सब कुछ
इतना मुश्किल होगा फिर से घर जाना
किसने लाज रखी औरत के आँचल में
किसने घर को घर का बस बिस्तर जाना
ख़र्च किया दफ़नाया ख़ुद को कागज़ पर
जिसने क़ब्र पढ़ी उसने शायर जाना
'क़ासिद' ख़ाब जुटाना सारे गमछी पर
पीठ पे गठरी लाद वजन से मर जाना-