रोज़मर्रा मेंं उलझे, वक्त के ग़ुलाम...
बंद कमरे मेंं अपने कुछ ख़्वाब समेटे हुए...
चाय की चुस्की के साथ,
एक गहरी सांस लेते हुए जब देखता हूँ...
ये पिघलती शाम लौट लौट पूछती है...
बता तेरा घर कहाँ है...!!!-
रूप अपना देख कर ये कैसे मुस्काई है
याद कर उसकी झलक ये खुद से ही
शरमाई है
ये कैसी मूरत है ये जिसकी
सारे जहां में परछाई है
क्या ये वही सांझ है
सूरज भी जिसको देखने तैयार है-
_ज़िन्दगी_
उम्मीद सवेरे से है
ये शाम ढल जो रही है..
थोडा धीरे ही सही
के ज़िन्दगी चल तो रही है...-
Din bhar jla yhi soch-kar,
Ki chand-raat dikh jayega,
Aur Bewafa badal utar aaya,
Sham dhalne se phle,
Lekin kya hi bya krte aur
Khne-sunne se kya hi badal jata h,
Khamosh rha yhi soch-kar..-
Kuch to khash h usme,,,,,,
Uske aane se badalne lagi hoon main
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तुम कर दो ना यारा कभी ....
इस ढलती हुई शाम को मेरे नाम ,
मेरे कंधे पे सिर रखना तुम...
और पिला देना मुझे इश्क़ का जाम..!!!-
कभी चलेंगे सड़क पे साथ , थामे एक - दूसरे का हाथ
ओर आ जायेगी बारिश , ओर होगा एक छाता हमारे पास ,
तो क्या हुआ ! भीग लेंगे हम उस बारिश में साथ ,
लगेगी अगर ठंड तुम्हें , तो अपनी कमीज पहना दूंगा ,
किसी चाय की दुकान पर गरम - गरम चाय पिला दूंगा ,
बस साथ देना हर लम्हें में मेरा
की फिर हर शाम को मैं बारिश करवा दूँगा ,
की फिर हर शाम को मैं बारिश करवा दूँगा ।
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मैं जून की इक दोपहरी सा,
तुम इक शाम सुनहरी सी!
मैं तूफानी सा एक समुद्र,
तुम नदी हो जैसे ठहरी सी!
मैं पथरीला सा एक पहाड़,
तुम सुन्दर घाटी गहरी सी!
मैं सघन वृक्ष इस उपवन का,
तुम एक शोख गिलहरी सी!
मैं उन्मुक्त पवन का एक झोंका,
तुम मर्यादा की डेहरी सी!
मैं कड़वा स्वाद करेले का,
तुम चटपटी हो इक बेरी सी!
नहीं है मुझमें कुछ तुमसा,
तुम फिर भी क्यों हो मेरी सी!
मैं जून की इक दोपहरी सा,
तुम इक शाम सुनहरी सी!-
भला कैसे ना हो जाऊँ घायल एक झलक भर से..
यह शामें दिन भर सिंगार करती हैं मुझे रिझाने को ❤-