क्षंणिक से जीवन को मणिक बनाना है
मेरे दुश्मन तू इतना दूर क्यों है ….
आ तुझे गले लगाना है-
समंदर चाहे कितना भी गहरा क्यों ना हो,
किनारे चाहिए होते हैं…
कभी कभी,
सबको सँभालने वालों को भी,
सँभालने वाले चाहिए होते हैं…-
ख़्यालों और सवालों के दरमियाँ,
जद्दोजहद जारी है…
मिट जाएँगे शिकवे सभी,
बस तुम्हारे गले लगने की बारी है …-
क़िताबों के बस्ते में ज़िम्मेदारियों को भर लिया है,
ज़िंदगी तुझसे कुछ ऐसे राब्ता सा कर लिया है
कभी इम्तहानों में होते थे बस्ते हल्के,
आज काँधों ने ही सारा बोझा धर लिया है
सपने बड़े और नींद भी सुकून की होती थी,
अब आँखें जो खुली तो तजुर्बे ने अपना काम कर लिया है
बेबाक़ सी हँसी और बेफ़िक्री ज़रूर थी तब,
पर हमने भी ज़िंदगी तुझ से अब इत्तेफाक कर लिया है
बचपन को सींचता हूँ यादों के फ़ुव्वारों से,
ज़रा थम, देखुं तो …ज़िंदगी तूने कितना वक़्त लिया है-
बहुत दूर से आया हूं...
बहुत दूर तक जाना है,
दो दिन की ज़िंदगी है,
चार दिन का फ़साना है...-
मेरे सोमवार से मन को इतवार सा कर देती है...
उसकी एक मुस्कान, ज़िंदगी को आसान सा कर देती है...-
रोज़मर्रा मेंं उलझे, वक्त के ग़ुलाम...
बंद कमरे मेंं अपने कुछ ख़्वाब समेटे हुए...
चाय की चुस्की के साथ,
एक गहरी सांस लेते हुए जब देखता हूँ...
ये पिघलती शाम लौट लौट पूछती है...
बता तेरा घर कहाँ है...!!!-
शाम की चाय है, बारिश की बहार है...
एक लंबे अरसे बाद सुकून वाला इतवार है...-
उसकी और मेरी कुछ ऐसी सी बातें हैं...
शाम की चाय है, और हल्की हल्की बरसातें हैं-
अधूरे कल, अधूरे आज
अधूरे दिन, अधूरी रात...
अधूरी सांसें, अधूरे ख़्वाब
अधूरे क़िस्से, अधूरे जवाब...
अधूरे काम, अधूरी शाम...
और,
मुक्कमल ये जहां...
ज़िंदगी तू बता, मैं कहां हूं,
कहीं हूं भी, या कहीं नहीं..?-