एक बार तुमने सोचा न समझा। चले सर को उठाकर, जाने क्या गम था। शायद बहम या, तीखा मन था। उस दिन तुमने, सुना नहीं, और समझा कम था। होठों पर चुप्पी, अंदर चीखता अहम था। शायद उस रोज़, जाने का मन था।
ये उलाहना तो बहाना है हसीनों का जनाब नाज़-नख़रे न करे जो , हुस्न कैसा हुस्न है रूठ कर बैठी हैं वो ताकि करो मनुहार तुम नज़रें पर दिखला रही कि उनको कितना उन्स है