लोग मंदिर और मस्जिद में ढूंढ रहे थे उसे
और वो एक काफ़िर के दिल में जाके बैठ गया-
काफिरों की बस्ती में खुदा बन गया
वो देखो शहर में कोई इंसान बन गया।-
ढूंढ के लाओ उस काफ़िर की सारी नज़्में,
मुझे मालूम तो हो, वो मुझे रखता कहां है।-
टूटे हुए इस दिल के जज़्बात मै तो लिखता हूं,
और लोगों को लगता है कि मै,
तेरी आशिक़ी में शायरी करता हूं।।
अपने दर्द-ए-इश्क़ को मै, अल्फ़ाज़ बनाकर लिखता हूं,
और दुनिया ये कहती है कि मै,
बस एक काफ़िर-सा बन फिरता हूं।।-
Aggar upparwaale ne kaha hota hai
Ke qaafiron ko maar do
Toh na tum hote na hum-
अपने ही कूचे को हम तुम तिनका तिनका कर बैठे,
हुआ ग़ज़ल का बँटवारा तो मिसरा मिसरा कर बैठे।
वो काफ़िर जो उस ताकत पर करते थे विश्वास नहीं,
ज़रा दर्द क्या झेला, वो भी अल्ला अल्ला कर बैठे।
हम ग़र रहते चैनो-अमन से, बाग सभी क़ाइम रहते,
हम दंगों में सारा ग़ुलशन सहरा सहरा कर बैठे।
कौन सुनाएगा ग़ज़लें और कौन सुनेगा नज़्मों को,
मोबाइल के दौर में ख़ुद को गूंगा बहरा कर बैठे।
दुनियादारी का कोई भी इल्म नहीं है यार तुम्हें,
आईनों के शहर में रहकर चेहरा चेहरा कर बैठे।
बनकर मरहम आए थे जीवन में मेरे तुम लेकिन,
घाव कुरेदा ऐसे तुमने, गहरा गहरा कर बैठे.
जाने कितनी सदियों के प्यासे पनघट पर आए थे,
सात समंदर, सारे दरिया, क़तरा क़तरा कर बैठे।
वक्त ने जब बदली करवट, तो सारे मंज़र बदल गए,
बंगलों-कोठी के मालिक भी हुजरा हुजरा कर बैठे।-
Dastoor-e-zamaana kuch aisa hai ab,
Ki hum aahh bhi bhare toh qaafir kehlaate hai.-