तेरी रुसवाई का सितम, कुछ इस कदर बरसा है !
तेरी आवाज़ सुनने को ये दिल, हर पल तरसा है!!
हां, कुछ तो ख़ामियाॅं मुझमें ही होंगी, ए-काफ़िर !
तुझे यूं ही नहीं मुझसे रूठे हुआ, अब एक अरसा है !!
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काबिज़ थे हम, जाने कब से तेरे ख़्याल-ए-इश्क़ में !
मगर तेरे उन अफसानों में हम कभी शामिल ना रहे!!
हार तो चुके थे हम, कब से इस जंग-ए-मोहब्बत में!
ए काफ़िर....
मगर अब तो तेरे "वक्त" के भी हम काबिल ना रहे !!
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ज़ुल्म-ए-इश्क़ जब किसी पर होता है !
हंसता है चेहरा, मग़र दिल ये रोता है !!
और तब हाल-ए-दिल कुछ ऐसा होता है,
ए-क़ाफिर कि सिर्फ़....
कुछ अनकहे अल्फाज़ बाकी रह जाते हैं !
कुछ ना-बयां जज़्बात बाकी रह जाते हैं !!
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मेरी डायरी के पन्नों से, आज भी,
ख़ुशबू उस गुलाब की ही आती है!!
ए-काफ़िर,
देख़ता हूं उन ख़तों को तो, आज भी,
याद, नूर-ए-महताब की ही आती है!!-
लफ़्ज़ों में ये अपने दिल का हाल कहता है!
नज़्मों में इसके अश्क-ओ-शराब बहता है!!
जमाना भी इसे आशिक-आवारा कहता है!
ए काफ़िर, क्योंकि,
अब दर्द-ए-दिल ये सर-ए-बाज़ार कहता है!!
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अब ये दिल किसी को चाहने की हिमाकत नहीं करता !
अब महफ़िल-ए-इश्क में किसी से बग़ावत नहीं करता !!
ए-काफ़िर,
अब हरजाई की याद में अक्सों से सियासत तो नहीं करता !
मग़र,
अब शाम-ए-ग़म में किसी जाम से तेरी शिकायत भी नहीं करता!!
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कुछ तो हवा भी सर्द थी,
कुछ था तेरा ख़्याल भी !
कुछ तो ऑंख भी नम थी,
कुछ था दूरियों का मलाल भी !!-
इन रास्तों की मंज़िलें कौन है, क्या पता?
हर मोड़ पर वो एक नई राह चुन लेते हैं!
जाने कब मुलाकत होगी उनसे, क्या पता??
बस एक दीदार से हम सौ ख़्वाब बुन लेते हैं!!-
इन रास्तों की मंज़िलें कौन है, क्या पता?
हर मोड़ पर वो एक नई राह चुन लेते हैं!
जाने कब मुलाकत होगी उनसे, क्या पता??
बस एक दीदार से हम सौ ख़्वाब बुन लेते हैं!!-
फिज़ाओं का रुख़ अब बदलने लगा है!
जैसे कोई नई शुरुआत अब होने को है !!
घटाओं का रंग भी अब बदलने लगा है!
जैसे एक सुनहरी शाम अब ढलने को है !!
बस इक मुलाकात का तुझसे जो वादा था !
ए-काफ़िर, लगता है,
उस इंतज़ार का भी इंतकाल अब होने को है!!
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