"मोहब्बत का शहर"
सोचता हूँ की अब मोह्हबत का नया शहर बनाया जाय,
मैं और तुम से अलग, अब एक हमारा घर बनाया जाय।
बेनकाब होंगे हर वो दरिंदे जिसके जहन में बेवफाई हो,
इन कांटों को निकाल फेंक ,सुहाना डगर बनाया जाय।
देख लिया ज़माने की सारी ज़िद्दी बन्दिशों का नतीजा,
सच्चे प्यार के परिन्दों को ,खुले आसमान उड़ाया जाय।
महबूब के जुल्फों की घटाओं से सींचकर मोहब्बत को,
इश्क़ के इस बाग में , बस प्यार के फूल खिलाया जाय।
चलता होगा नफरतों का कारोबार फरेबियों के शहर में,
सोचता हूँ उनके इंतजार में,रात को दोपहर बनाया जाय।
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