ढलते सूरज-सा ढलता हूँ।
मैं ठोंकर-ठोंकर चलता हूँ।
मेरे गाँव भुलाए थे मैंने
ये शहर बनाए थे मैंने
पर आज इन्हीं शहरों से मैं
बेहाल बहुत निकलता हूँ।
मैं ठोंकर -ठोंकर चलता हूँ।।
मेरी बात करोगे एक - आधी
तुम शेर लिखोगे दो - चारी
तुम जानो क्या किस हाल में हूँ
किस आग में पग-पग जलता हूँ।
मैं ठोंकर -ठोंकर चलता हूँ।।-
अजीब परिंदा है अपनी मज़दूरी पर नाज़ करता है,
वह शहर-दर-शहर रोटी के लिए परवाज़ करता है !!
عجیب پرندہ ہے اپنی مزدوری پر ناز کرتا ہے،
وہ شہر در شہر روٹی کے لئے پرواز کرتا ہے !!-
जो जनवरी में भी पसीने से लथ-पथ रहता है,
आज उस पेशानी पर मज़दूर लिखवा आया हूं !!
جو جنوری میں بھی پسینے سے لتہ-پتہ رہتا ہے..
آج اس پیشانی پر مزدور لکھوا آیا ہوں !!-
अजीब परिंदा है अपनी मज़दूरी पे नाज़ करता है,
वो शहर-दर-शहर रोटी के लिए परवाज़ करता है।
عجیب پرندہ ہے اپنی مزدوری پہ ناز کرتا ہے،
وہ شہر در شہر روٹی کے لئے پرواز کرتا ہے !!-
सो जाते हैं फुटपाथ पे अख़बार बिछा कर
मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते..
_मुनव्वर राना
सड़कों मे अलाव जला के
ख्वाबों को बिछौना बनाकर
सो जाते हैं आसमान की चादर ओढ़ कर
मजदूर कभी डिप्रेशन की गोली नहीं खाते...
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Dur kro garibo ka Dard
Ye h Aam aadmi ka Farz
Sbko chukana h ek Karz
Madad krne me kya h Harz-
मजदूर को कोरोना क्या मारेगा ..
मजदु़ूर को जीने की मजबूरी ही मार डालेगी..-
दूजों के मकाँ बनाये, हमने
अब अपना ढूंढ रहे हैं,
मज़दूर हैं साहब,शायद इसलिए
सड़को पर घूम रहे हैं ।
भूख से बच्चे बिलख रहे मेरे
प्यास से तड़प रही अर्धांगिनी है
धूप की तपिश झुलसा रही तन
ये कैसी विभत्स अग्नि है ।।
ये कैसी शाम ढली ये उगा
कैसा दिवस है, भूखे है बच्चे
और मज़दूर विवश है ।-
मिलों पैदल चल रहा वो इंसान,
मज़दूर नही वो मजबूर है,
बंजारे सा भटक रहा है जो,
ना सूरज की गर्मी जला रही,
ना पैरों के छाले रोक सके उसको,
बस चल रहा वो दिनों दिन,
अपने गांव की तलाश में,
आतुर है वो कितने दिनों से,
मंज़िल पाने को आस मे,
रे खुद को इंसान कहने वाले,
देख तो एकबार उसके छाले को,
खुद को खुदा समझने वाले,
आशियाना तेरा उसकी मेहनत है ।-