किताबों से तो अपना गेहरा नाता है जनाब,
हर मर्ज़ का मरहम बिना पूछे इनसे मिला है ।-
ज़ख्म हमारा तो उम्मीद - ए - मरहम क्यूँ किसी और की दरकार हो,
दर्द में रह लेंगे बेशक़ कोई हाल पूछे हमें क्यूँ भला ये इसरार हो।।-
ज़ख्म गहरे नहीं है ना आपसे मरहम ही लगवाएँगे,
हाल पूछ लो बस एक बार सारे ज़ख्म भर जाएँगे।।
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कभी - कभी दर्द भी इतना ज़्यादा बढ़ जाता है,
आँसुओं से कोई मरहम ही नहीं लग पाता है।।
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ग़म के ज़ख्म भी भर जाते हैं अक़्सर पा कर वक़्त का मरहम,
ख़ुशियों की लहरों के आगे मुड़ते देखे हैं हमनें तूफां-ए-ग़म।।
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میرا دل نہ ٹوٹتا جب زخم غیروں نے دیے ہوتے
مجھے تو جن سے مرہم کی توقع تھی
مجھے سارے زخم وہیں سے ملے
मेरा दिल न टुटता जब ज़ख्म ग़ैरो ने दिए होते
मुझे तो जिन से मरहम की तवक्कु थी
मुझे सारे ज़ख्म वहीं से मिले।
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Jo zakhm deta hai marham ussi ka kaam aata hai
Log kitna hi marham kyu na lga de kam hi lgta hai-
नासमझ शायरी समझते हैं मेरे दर्द को,
और मुस्कुरा देता हूं मैं
अरे कोई तो बताओ उन्हें,
मुझे वाह नहीं, मरहम चाहिए-
Kabhi sukoon to kabhi be sukoon sa lagta hai
Beeta waqt aaj bhi thehra sa lagta hai..
Bohot zakhm chhupaye bethe hain apne andar
Na jaane kyun tu marham sa lagta hai..
Guzar gaya har lamha guzar gaye hum
Aaj bhi ye waqt maatam sa lagta hai..!!!-
सिर्फ़ "शुरत" बदल जाए तो कोई गम नहीं ऐ "मरहम"
गर "शिरत" बदल गई तो जी पाना मुश्किल है हमारा।
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