दुनिया की तमाम बातों में बस खामोशियां अच्छी लगी
जीने के तमाम तरीकों में खानाबदोशियां अच्छी लगी-
मुतवातिर सफ़र करती हैं...
या किसी अस्थायी पड़ाव पर
सामायिक विश्राम...
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बावजूद तयशुदा मंज़िल के
ख़ानाबदोश होती हैं...
अक्सर
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"प्रेम कविताएँ"!-
मन पवित्र ..
चन्दन चरित्र..
मन का मनका ..
दुनिया की क्या शंका...
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Inayat nahi zrra-bhar jese Khana-ba-dosh hain hum ....Bebaak hain isi Mulk-o-zameen ke Bashinde hain hum,,,Maraasim hai Desh🇮🇳 se mera gehra.....
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Mai Khanabadosh Hun
Anjaani si Raahon me
Anjaane Chehron k beech
Dikhta Hosh me
Pr Khud me Madhosh hun Mai
Mai... KHANABADOSH hun-
हर रास्ते पर मंज़िल नई बना लेते हैं
खानाबदोशी की आदत है, क्या करें !-
Sawali nahi hum ,,,Na khanabadosh hum ,,,,na kasa mujh faqeer ka,, {Ya Rabb} ye do hath phele hue ,,,apke kun -fayakun ki mohtaaj meri har dua ......
सवाली नहीं हम,,,न ही खानाबदोश हम,,,न कासा मुझ फ़क़ीर का,,( या रब्ब) ये दो हाथ फैले हुए,,, आपके कुन-फ़याकुन की मोहताज मेरी हर दुआ !!!!-
एक तेरी खातिर ऐ दिल...,
दर दर भटकते बन खनाबदोश...,
हर बार जो लगता हैं कि मिल गई मंजिल...,
झटक कर दामन आगे बढ़ जाती है ज़िन्दगी...,
तेरे तमाशों की तो क्या बात कहें...,
बन मदारी तूने बडे नाच है नचाये....,
अब तो कर ले किसी कुचे मे खय्याम...,
के हो काफिला-ऐ-रक्स का इख़्तिताम...,-
तुझे ढूंढें हर जगह, न जाने तुम कहां चली गई।
खुदा को भी यहींं मंजूर, तो चलो खानाबदोश हीं सही।।-