थोड़ी सी शुक्रगुज़ारी और बस !
इक क़ल्ब ए साबित और बस !!
हयात ए मोमीन और मसले हज़ार !
हर मसले का हल रब और बस !!
बेचैन दिल ,ला तादाद ख्वाहिशें !
उस की रज़ा पर राज़ी और बस !!
रेशम सी नाज़ुक बदन में उलझी रगे !
ज़रा एक नस टस से मस और बस !!
ख़ुशी और ग़म तमाशे हैं "क़िस्मत" !
उस ने जब कह दिया बस तो बस !!-
औरन को शीतल करैं, आपहु शीतल होय!!
Give respect take respect �... read more
मैं ज़िंदगी से समझौता कर रही हूं !
यानी के मैं मौत से सौदा कर रही हूं !!
शिद्दत-ए-अज़ीयत तुम नहीं समझोगे !
मुर्शीद मैं आहिस्ता आहिस्ता मर रही हूं !!
मेरी नफ़्स ने मुझे बड़ा रुसवा किया है !
मैं दुनियां से नहीं ख़ुद से ही डर रही हूं !!
मेरे रूठने की फ़िक्र न करो अब तुम !
ख़ुद को माना कर दिल में धीरज धर रही हूं !!
वो पूछते हैं क्यूँ लिखती है "क़िस्मत" शायरी !
बस करेले जैसी ज़िंदगी में मसाले भर रही हूं !!-
बस इस बात से दिल को
हर बार सबर आ जाता है कि ...,
जब आज़माने वाला ख़ुदा है तो
आज़माइश से निकालने वाला भी
तो ख़ुदा ही है!!-
रवाँ :- बहना (flow)
निहाँ :- छुपे राज़
शरर-ए-जहां :-
आग से भरी दुनियां
मकाँ : घर (दिल)-
जब भी आऐ महबूब पढ़ने हमारी ग़ज़ल /
मसर्रत ऐसी के टूटा दिल भी गया मचल मचल !!
दी दाद हर आश'आर पर और पूछा, क्या सब ठीक है?
सवाल में ही उलझ गए हम, हाल-ए-दिल क्या बयां होता,
साँसें जैसी मद्धम मद्धम नब्ज़ भी चल रही बरीक है !
आकर बैठे जब वो सामने हमने कहा हाँ ! सब ठीक है !!
वही दर्द भी और वही दवा भी बात तो ये अजीब है !
वही क़ातिल और सितमगर भी पर दिल के नज़दीक है!
उसकी बेरुखी लेती है जान.. बाक़ी तो सब ठीक है !!
आईना भी शर्मा जाए झूठ की ऐसी तकनीक है !
स्याह पलकों तले बिखरे मोती और शब-ए-तारीक है !
रात की कैफियत ना पूछो, सुबह तक हाल... सब ठीक है !!-
रिश्तों में वादाखिलाफ़ी की कोई गुंजाइश नहीं है !
दोस्त दुश्मन साथी अब किसी की ख़्वाहिश नहीं है!!
जिस्म की खूबसूरती पर तव्वजो दिया रात दिन!
फ़िर भी क्यूँ हासिल दिल को आसाइश नहीं है !!
ज़िंदगी में ही सुलह करो कब्र पर न आना रोते हुए!
इस से ज़्यादा बाक़ी मेरी कोई फ़रमाइश नहीं है !!
सत्ता के लिए साजिशें ना कर वरना अपनी नस्लों को !
कैसे बताओगे हराम की तुम्हारी पैदाइश नहीं है !!
विरद करती रह हरदम कोई इस्म-ए-आज़म क़िस्मत !
वरना इन ख़यालो से ज़हन को रिहाइश नहीं है !!-
जिन सजदों की खा़तिर सर कटा दिया..,
उन सजदों को नफ़्स के मारों ने भुला दिया..,
कहता रहा वो हक़ की बात कुनबा भी लुटा दिया,
तीर-ओ-तलवारों से तो कहीं बरछी से दिलबर मिटा दिया !
हाय तेरी मज़लूमी मेरे हुसैन !
हाय तेरी बेबसी मेरे हुसैन !!
बेरिदा काफ़िला फिरता रहा अफ़सोस है शाम के बाज़ारों पर ..,
मिस्ल-ए-हैदर जो दरबार में खड़ी रही नाज़ है उस खातून नेक ज़ात पर ..,
ख़ौफ़ आता है मुझे अब ज़माने की सुस्ती और काहिली पर ..,
शर्म आती है क़िस्मत मुझे इस बेज़ारी ,बेध्यानी और जाहिली पर..,
भूल गए तेरी मज़लूमी मेरे हुसैन !
भूल गए तेरी बेबसी मेरे हुसैन !!
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If this question or situation had come up - three - four years ago, my answer would have been deeply emotional and straight from the heart. Back then, I was truly attached to this app—especially because of the beautiful bond I had formed with other writers. It genuinely felt like a family.
But today, things are different.
The passion for writing has faded, those people are no longer around, and honestly, there’s not much time either...
So now, if something like this happens, I’d simply say:
“It’s okay. It’s just a month—
it’ll pass. Anyway, it’s not like I write much these days.”-
टूटने का भी एक सलीक़ा होना चाहिए !
यूं रो रो कर तो भीख मांगी जाती है !!
हमने सीखा है हमेशा ज़र्फ़ में रहना !
यूं ग़मज़दा होना हमें रास नहीं है !!
ख़िज़ा का मौसम है चेहरे का रंग उड़ा है ,
अभी हवाएं तेज़ हैं , अभी साथ कोई नहीं..,
सब्र कर बेवजह परेशान ना हो मेरी जान...,
दिल मेरा इतना भी उदास नहीं है!!
किस क़दर बेरहमी से ज़िंदगी आईने दिखाती है,
अपनों के बीच बेगानों सा रहना सिखाती है,
तू इश्क़ मोहब्बत की डोर थामी रही "क़िस्मत"
मुझे रब के सिवाए किसी पर भी यक़ीन नहीं है !!-
हां मैं नए ज़माने में पुरानी सी लड़की हूं..,
मुझे नहीं आता प्रैक्टिकल मोहब्बत करना..,
मुझे आज भी आंखों में आँखें मिलना पसंद है,
छूना अहम नहीं बस मुस्कुराना पसंद है,
आप आज के लड़के हो ,
आपको मेरी मोहब्बत समझ नहीं आएगी...,
हम दोनों में बस इतना फ़र्क है...,
मैं शिद्दत पसंद नासमझ हूं,
आप सुलझे हुए समझदार हो !!-