आ आकर जुवां तक अल्फाज़ कई दफा लौटे
कुछ बदलकर अंदाज लफ्ज़ होकर सफ़ा लौटे
कुछ भी देने की नियत ये नहीं रखी 'अजनबी 'ने
किसी को जो दिया है ,जब लौटे तो होकर नफ़ा लौटे
जो चिराग जलाए रखने का फरमान लिए घूमा
वो भी फिर हर महफ़िल में होकर हवा लौटे
खबर में रहना चाहते हैं, औरों की खबर नहीं रखते
वो भी उम्मीद में है हर शख्स से वफ़ा लौटे
जब तक सब ठीक था तो मशरूफ थे खुद में
यारों की महफ़िल में बर्बाद होकर लौटे तो क्या लौटे-
वक्त जो लग रहा है लग रहा है खुद में कहीं खो जाऊंगा मैं
जमाने सा पता नहीं शायद खुद के जैसा हो जाउंगा मैं
जहां कोई ना हो ऐसे एकांत में जाकर रूक जाऊं कहीं
जहां बस मशरूफ तन्हाई हो जाकर छुप जाऊं कहीं
कहीं कुछ भी करने का कोई मन नहीं करता
अब ख्याबों का दिल में कोई वजन नहीं करता
इतना भी क्या बेबस खुद के लिए हो शूल जाऊं
अपने ही भावनाओं के हाथों मैं हो मकतूल जाऊं
जमाना याद रखें ऐसा कोई वहम मेरे दिल में नहीं
कहीं ऐसा ना हो सबको याद रहूं खुद को भूल जाऊं
जीने के तमाम रास्तों में फिर उलझ रहा हूं मैं
उलझन बढ़ ही रही है जितना सुलझ रहा हूं मैं
आजकल क्या चल रहा है खुद से ही बेखबर हूं मैं
बहुत जल्द वीरान हो जाएगा ऐसे ख्याबों का शहर हूं मैं-
मेरा होना मात्र काफी नहीं रहा
चन्द कागज की रसीदें हो गया हूं
याद भी रह जाऊं मुश्किल है अब
खुशनुमा पल नहीं तारीखें हो गया हूं
भावनाओं का समंदर सूख रहा है
स्वयं में मीन के सरीखे हो गया है
मुझे पहले ही पता है मेरी हकीकत
महज कुछ झूठे कसीदे हो गया हूं
पहले मिला जुला मौसम रहता था
ख़ामोश हूं बिन हंसी के हो गया हूं
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जिसे ज़िन्दगी बनना था वो भी महज किस्सा बनकर रह जायेगा
जिसे मेरा सब कुछ बनना था महज एक हिस्सा बनकर रह जायेगा
इश्क तो बहुत है उसे पर साथ चलने की जमाने से लडने की हिम्मत नहीं
एक दौर में कभी मर मर के जिये है हम वो भी मुझसा बनकर रह जायेगा
एक तरफ उम्र भर के लिए इश्क है दूजी और उसके घर की परवरिश
जो जीने है उसे मेरे साथ सपने अब सब महज गुच्छा बनकर रह जायेगा
किसी और के साथ फिर सपने बुन भी पाएगे या नहीं मालूम नहीं हमको
प्रेम पूजा है मेरे लिए पर अब लगता है प्रेम बस गुस्सा बनकर जायेगा-
अतीत के दोहरते सवाल भविष्य के ख्यालों में 'अजनबी' गुम है कहीं
हजारों बातें हजारों ख्याल किसी भी तसव्वुर में तबस्सुम ही नहीं-
अल्फाजों का सैलाब फिर उमड़ कर आने को है
एक और समझौता एक और ख्याब डूब जाने को है
अच्छा होगा बुरा होगा ये तो वक्त ही बताएगा
मेरे चमकते उजले दिनों से फिर धूप जाने को है
मेरी मुश्किलों का कोई हल ना अब जर रहा है
धीरे धीरे ही मुझमें कहीं कुछ मर रहा है
अल्फाजों से टूटे अल्फाजों को कैसे सीते है
बिना खयाबों के जिंदगी कैसे जीते हैं
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स्वप्न दफ़न होकर भी दफ़न नहीं होते
मिलेगा मौका फिर कभी उठ खड़े होंगे
पीए गए कुछ कड़वी भावनाओं के घूंट
धीरे धीरे नफरत की शक्ल में बड़े होंगे
जमाने के नाम पर टूटते सपनों की खनक
उम्र के आखरी पड़ाव तक गूंजेगी
कितना भी उलझा कर रखो खुद को
बैचेनियां उम्र के हर मोड़ पर घर ढुढेंगी
गुजरते वक्त के साथ रोज मलाल आयेगा
काश समझा होता रोज ख्याल आयेगा
प्रेम के स्थान पर घृणा भर चुकी होगी
होश आयेगा तब हर उम्मीद मर चुकी होगी
तन खोने पर मेरी पसंद का सब दान होगा
जीवन रहते हुए नहीं पसंद का मान होगा
वक्त हालत फिर ऐसे ही खोज लायेगा
वक्त का उसूल है लौटकर फिर आयेगा
समझोगे जब तक ढांचे की हड्डियां ढेर हो चुकेंगी
मलाल भी ना कर सकोगे बहुत देर हो चुकेगी-
पुराने तौर वाजिब नहीं लगते उम्र जीने को अब
चल 'अजनबी' कुछ नये सलीके तलाश करते हैं
सवाल परत दर परत और चुने जा रहे हैं रोज
जमाने के जवाब बुझाते नहीं और प्यास करते हैं
कुछ सालों के जीवन की सदियों तक की तैयारी
क्षणभंगुर है इकट्ठा क्या आत्म के लिबास करते हैं
बेहद बैचेन कर गया है शब्द ' उम्मीद ' मुझको
एक उम्र जीने का ना जाने कैसे हिसाब करते हैं
जीवन मामूली है बाकी मूल्य सबका लगता है
जीवन को छोड़ कर सबसे लगाव करते हैं
अंधेरे कमरे में तमाम तन्हाई बहुत अच्छी है
उजाले के ख्याब तुझे तेरे खिलाफ करते हैं-
मन भारी भ्रम में भूल कर रहा हर रोज प्रवृतियों की
तन की हर करीबी है महज ज़हन की स्मृतियों की
दीर्घ दृष्टि में जीवन मात्र कुछ क्षण का, अति प्रबंध क्या करना
ध्यान क्या देना स्वयं क्या हूं, हर शख्स की स्वीकृतियों की
क्षण भंगुर लग रहा है जीवन ,दोहराव की कहानी सा कोई
अपना वजूद ढूंढने निकले समंदर में, कतरा पानी का कोई-
शब्दों में लिपटें हुए भाव पड़ता हूं
अनसुलझे सवालों से रोज लड़ता हूं
कुछ हल्के शब्दों में भारी जज़्बात भरें है
कुछ उथले उथले शब्दों में गहरे राज पड़े हैं
कुछ जीने के पहलूओ में कोई मुश्किल नहीं है
अब चकाचौंध जमाने पर आता दिल नहीं है
कम फिक्र है अब जमाने सी मंजिलें पाने की
जानकर 'मृत्यू' सत्य है कहीं कोई मंज़िल नहीं है
बनूं प्रलोभ पथ का पथिक या खोजू शून्य का विस्तार
तन का नाम है आत्म कौन है बोध हासिल नहीं है
मन को भाए भ्रम भोगे जा सकते हैं एक उम्र में
तन जायेगा पर मन नहीं पाना कुछ भी कामिल नहीं है
बहुत बैचेन करेगा मुझे महज मेरा सवाली रह जाना
बहार समंदर इकठ्ठा कर अन्दर सब खाली रह जाना-