गोधुली की गुमनाम होती रोशनी को तेरे नाम करता चला मैं...
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গোধূলি-লালিমা পড়েছে ঢাকা গো-খুর ধূলিতে
নষ্ট-নখরে ভ্রষ্ট তনু চৌখুপি কুঠুরিতে-
গোধূলির রঙে ঢেকে রাখা ক্ষত যত
গভীর রাতে বিষাক্ত নখে পচে ঘা হয় তত
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आसान कहां होता है गोधूलि बेला में दीप जलाना
शुद्ध सात्विक मन नैसर्गिक तन से इष्ट में खो जाना-
वाे कठाेर....
वाे काेमल...
वाे तप्त....
वाे शीतल....
वाे विचरता...
वाे विचलित...
और अनायस ही..
दाेनाें में अथाह प्रेम...
हर गाेधूली वाे प्रेम...
पूर्ण हाेना चाहता है...
और समा जाना चाहता है...
सूरज, नदी के जल में....-
যদি দেখো গোধূলিকে নিজের মতো;
জেনে রেখো তার কাছেও রাখা আছে নিশির ক্ষত...
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गोधूलि बेला जब मध्यम-मध्यम,स्याह रंग में ढलती है
सहर के संग जगे अरमानों को, सूर्ख रंग में रंगती है।।
खोलती है कांच से लदी हुई,बेजान सी खिड़कियों को
पत्तियों के ओट में छिपे मयंक को, धीरे से टटोलती है।।
देती है नव रंग-रूप झुर्रियों से पटे हुए अपने अक़्स को
फिर....काले घेरे वाली आंखों में,काजल वो भरती है।।
मिलन-विरह,खुशी-ग़म हर एक वो अनुभव करती है
आईने में एक कल्पित बिंब से,अपना ब्याह रचती है।।
टूटता है अचानक से जब, स्वंय रचित ये भ्रम उसका
तब अश्क़ों के खारे नीर से,अपना चेहरा वो धुलती है।।
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গোধূলি বেলার লালচে আকাশে শেষ হয় নীল
ক্লান্ত দিনের শেষে হাড়ভাঙা পরিশ্রমে আরও একটা দিন সামিল।-
গোধূলি বেলায় হেঁটে যাচ্ছি তোমার সাথে,
বৃক্ষের ছায়াঘেরা আবদ্ধ পথ দিয়ে।
কৃষ্ণচূড়া ফুলগুলি বিছিয়ে আছে রাস্তা দিয়ে, তোমাকে সুস্বাগতম করতে।
হঠাৎ,, কেউ একটা ডেকে উঠলো পেছন থেকে, আর আমার তন্দ্রা গেলো ভেঙে।
উঠে দেখি,, তোমার পুরনো চিঠি গুলো, পড়ে আছে এখনও টেবিল জুড়ে।
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