मुझसे पहली सी मुहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
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इक फ़ैज़ है, इक बरेलवी ,एक बन्दा राहत है,
इनसे मन नही भरता मेरी और भी चाहत है।
इक ज़ुबैर है, इक ज़रयूं, एक बन्दा हाफी है,
पर तू बता मुझे ए मौला क्या इतना काफी है।-
और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
कोई और दर्द मिल ही जाएगा इस दर्द को भुलाने के लिए...-
इश्क़ की आग फिर से जलाने के लिए आ
वो नहीं तो बस राख उड़ाने के लिए आ
नये बुतों की इबादत से जो दिल भर आए
तो काबे में उस यार पुराने के लिए आ
शोख बिरहमन की लड़की पे है दिल आया
मुझ को तर्क-ए-इस्लाम कराने के लिए आ
मत मिलने तू मुझ से ज़माने के लिए आ
मत मुझ को तू छोड़ के जाने के लिए आ
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कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल कब रात बसर होगी
सुनते थे वो आएंगे सुनते थे सहर होगी
- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़-
जब तेरी समंदर आँखों में,
यह धूप किनारा, शाम ढले
मिलते हैं दोनों वक़्त जहाँ,
जो रात न दिन, जो आज न कल,
पल भर को अमर, पल भर में धुआँ,
इस धूप किनारे, पल दो पल,
होंठों की लपक, बाँहों की खनक
यह मेल हमारा, झूठ न सच
क्यों रार करो, क्यों दोष धरो,
किस कारण झूठी बात करो,
जब तेरी समंदर आँखों में,
इस शाम का सूरज डूबेगा,
सुख सोयेंगे घर दर वाले,
और राही अपनी रह लेगा।।
[‘दस्ते-तहे-संग’]
#फैज़ अहमद फैज़-
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह - ए - अज़ल में लिखा है
जब जुल्म - ओ - सितम के कोह - ए - गरां
रुई की तरह उड़ जाएंगे
हम महकूमों के पाँव तले
ये धरती धड़ - धड़ धड़केगी
और अहल - ए - हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़ - कड़ कड़केगी
जब अर्ज - ए - खुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहल - ए - सफ़ा , मरदूद - ए - हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराए जाएंगे -
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़-
दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के
बैठें है खुदको तेरे हिज्जर में मार के
क्यों तुमने मुझे यूं परायेया कर दिया
तुम क्या गये की रूठ गये दिन बहार के
फै+राज़-
मैं वहाँ पर फैज़ सा था
घूमता था हर जगह,
पर ज़रा सा क़ैद सा था
मैं वहाँ पर फैज़ सा था
थीं नमाज़ें और रोज़े,
कलमों की आवाज़ भी थी
एक तन्हा दिल था मेरा
गूंजती आज़ान भी थी
इश्क़ न था अश्क़ न था
यार न थें रश्क़ न था
एक थी तावीज़ मेरी
जो की मुझसे दूर ही थी
मैं तो ठहरा एक काफ़िर
वो ख़ुदा में चूर ही थी
आँखों को जब वो यूँ उठाती
कायनातें सर पे आतीं
मेरी तो कुदरत अजूबी
शाम सारी मय में डूबी
आँख जब तक खोल पाता
दूर मुझसे वो हो जाती।
उसकी फ़ितरत वो ही जाने
मैं लिए सब ऐब सा था
हाँ वहाँ कुछ कैद सा था
मैं जो ठहरा फैज़ सा था।-
हज़ारों मर्तबा लिखा होगा और हज़ारों दफा लिखेंगे । एक राज़ है दफ़्न इस दिल में, कभी न कभी तो लिखेंगे ॥
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