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सभी मसरूफ़ हैं दरिया किसे मिलकर बनाना है
हर एक क़तरे को अब अपना अलग सागर बनाना है
किसी मासूम को फिर से कहीं बहला के फुसला के
उसे बारूद का क़ाबिल सा कारीगर बनाना है
न जाने शाम को कितने सलामत लौट पाएँगे
हमें हर शख़्स का खाना भी तो गिनकर बनाना है
वजह कुछ भी नहीं है बस ख़ुमारी है सियासत की
सुबह तक बाग़ को कैसे भी कर बंजर बनाना है
किसे हथियार बनकर जान लेने की तमन्ना थी
हर एक पत्थर को लगता था हमें तो घर बनाना है
तमाशे हर नसल के पेश होंगे सब्र रख 'क़ासिद'
हमें इस मुल्क़ को आख़िर में चिड़ियाघर बनाना है-
मैं मंज़िल खरीदूँ सफ़र बेच दूँ
चलो आज अपना हुनर बेच दूँ
जो बचपन सही भाव दे दे ख़ुदा
चंद लम्हों की ख़ातिर उमर बेच दूँ
अयादत में ख़्वाबों की जाऊँ जो गर
मैं दवाएँ दिखाकर ज़हर बेच दूँ
ज़मीं की मोहोब्बत में क्या ये सही है
फ़लक को मैं जा कर के पर बेच दूँ
यकीं चाँद पर है ये माना मगर
क्यूँ अँधेरों को अपनी नज़र बेच दूँ
अजब है ये शौहरत की ज़िद भी न 'क़ासिद'
मैं इतना कमाऊँ कि घर बेच दूँ-
अज्ञानी को भी ज्ञान के पथ पर चला दिया।
शिक्षक ने अपने शिष्यों का जीवन बना दिया।
अँधकार में कभी कहीं हम डूबने लगे।
शिक्षक के ज्ञानपुंज ने पथ को दिखा दिया।
जब कोख में पनप रहे थे सबसे बेखबर।
माँ के ही ज्ञान ने हमें सब कुछ सिखा दिया।
जीवन की राह में कहीं जो गिर पड़ें कभी।
शिक्षक ने बाँह थाम के हमको उठा दिया।
बढ़ता वही है याद रखा जिसने है सबक।
थम सा गया है जिसने सबक को भुला दिया।
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वक़्त की सुई ने वक़्त सही दिखया है.
नियति का नियम कौन बदल पाया है.
फ्रिज कभी घड़ा थोड़ी बन पाया है.
कृष्ण सारथी करण धनुर महा रथी.
रंग बदलता ये वक़्त पराया है.
ये छल भी कोई कोई कर पाया है.-
तस्वीर अपनी बेहद हसीन रख ,,
पर हो सके तोह आईना भी साथ रख ।।
गर न हो सके सुरज से दोस्ती ,,
तोह चिरगों को अपने साथ कर ।।
मालुम हैं नही आयेंगे बचाने फ़रिश्ते ,,
पर थोड़ा तोह रब पर विश्वास कर ।।
दर्द हैं , गम हैं , मत मुस्कुराया कर ,,
पर कम से कम आशु तोह मत छिपाया कर ।।
मालुम है चला गया बचपना अरसे पहले ,,
कभी तोह बच्चों में बच्चा बन जाया कर ।।
कौन कहता है , कुछ मांगने जा मंदिर ,,
युही कभी रब का हाल पूछ आया कर ।।-
टूटे ख्वाब जोड़ने आया हूँ. मै वो गांव हूँ
जो टुटी छतरी लेके शहर आया हूँ.
आखिरी रात जनाजे के नसीब में कहां मै
ज़िंदा साँसो की मयीयत को पहर आया हूँ.
रेत में दबी कस्ती मेरी जूतों पे लिखी हस्ती मेरी.
फटे लिबास में बेचने कर्ज का जहर आया हूँ.
किसानी का दर्द लिखूँ कैसे कैसे. अनाज बेच के
मै बस का टिकट लेकर दिल्ली आया हूँ.-
इक दौर का हिस्सा कमाल रखा है.
इश्क का नाम हमने बवाल रखा है.
खुद के लिए ही जाल बिछा रखा है.
किस्सा तेरा कोई सभांल रखा है.
कौन बताये तुम्हें हमने आज भी
अलमारी में सिर्फ एक रुमाल रखा है.-
उतना ही झांकेगे अतीत में
जितने से खुश रह लेंगे
सपने देखेंगे बस उतना
जितने को सच कर लेंगे
मान सम्मान की चादर को हम
खुद हाथों से बुन लेंगे
डर नहीं दुर्भाग्य का हमको
खुद कष्टों को चुन लेंगे
कल तक हारे बैठे थे पर
जीत वरण अब कर लेंगे
प्रीत को एक रस्म बनाकर
गीत अमर हम कर देंगे-
उसके जिस्म पर ग़ज़लों का पहरा सा था ,
रफी साहब से रिश्ता इत्तेफाकन मेरा भी गहरा सा था .
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