बनाएगी मुहब्बत तुम्हें जरूर समंदर, सह सकोगे?
न कश्ती मिलेगी, न किनारा मिलेगा, रह सकोगे?
प्यासे लौट जाएंगे, पास बैठे लोग, कुछ दे न सकोगे,
सुन लें शायद, शोर तुम्हारा, सारी बकबक भी, सब कह सकोगे?
बंधे रहोगे कस्मों में, याद आएंगे झरने वाले दिन, फिर बह सकोगे?
बेवजह फेकेंगे पत्थर लोग, मोती भी ले जाएंगे, ढ़ह सकोगे?
बनाएगी मुहब्बत तुम्हें जरूर समंदर, सह सकोगे?
न कश्ती मिलेगी, न किनारा मिलेगा, रह सकोगे?-
कह देती हूँ हर वो बात जो कही जानी थी पर... read more
बचपन के
खिलौनों से लेकर
जीवनसाथी और मृत्यु के चुनावों तक
होती है असमानता
पुरुष के अपराधों पर
होती है 'जेल' या 'मृत्युदंड'
किंतु स्त्री निरापराध भी हो
तो होता है
'चीरहरण' 'चरित्र हनन'।-
औरतों पर लिखी गईं तमाम गालियां, जिन औरतों ने मशाल उठाकर विरोध किया तो लिखी गई एक और गाली 'फेमिनिस्ट'।
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प्रकृति के
विरुद्घ जाना
कभी लाभकारी नहीं रहा,
प्रेम
प्राकृतिक है
और विवाह...।-
संसार को दुखों से बचाना हो, तो
प्रेमी-प्रेमिकाओं के कमरों को लूट कर,
बिखेर देना चाहिए उनका
बेशकीमती खजाना समस्त संसार में
उनके खतों और तस्वीरों में भरा पड़ा है
अनंत सुख, दर्शन और शायद...,
ईश्वर भी।-
थककर ग़ुर्बत से, फ़क़ीर ने, खूब कमाए पैसे,
अब थककर रईसी से, फिर फ़क़ीरी चाहता है।-
बचपन से सुनती आई हूँ
ईश्वर सर्वशक्तिमान है, भाग्य-विधाता है
उसके आदेश को
कोई नहीं कर सकता अनसुना
लेकिन मैंने तो देखी हैं
उससे कहीं अधिक शक्तिशाली चीजें
जो अक्सर,
ईश्वर के बनाए रिश्तों पर पड़ जाती हैं भारी,
क्षण में करती हैं न्याय, देती हैं दंड
यहां तक मृत्यु भी है उनकी गुलाम
ऐसी ही,
ताकतवर वस्तुओं में से
एक है 'जाति'।
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खबर छपी...,
'भुखमरी से दो ने जान गंवाई'
वाकई...?
आज तक भरे पेट भी...,
कोई मरा है क्या?
अधिकतर, मौतें
भूख से ही तो होती हैं
कुछ 'पेट' की,
तो कुछ 'आत्मा' की।-
मेरी चांद पालकी आगे-आगे, बारात थे तारे पीछे,
भोर मेरी होने वाली थी, मन-मोर मगन था नाचे।
सहसा प्रेम आ गया राह में, ठोकर लग सपने टूट गये,
बिखर गये सब कागज-पतरा, टूट गये सब सांचे।
ख्वाबों में छोटा सा घर था, मेहनत के कुछ पैसे थे,
दूर गिरा छटककर सब कुछ, रह गये केवल खांचे।
क्या धरती आकाश है क्या, भूख-प्यास क्या शाम-सुबह
भूल गया सब जोगन मन, बस एकही नाम है जापे...।
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बचपन में
खेलते बच्चों को घूरते
झोली वाले बाबा के आ जाने पर
सहम कर अनायास ही,
बंद कर ली थी खिड़की मैंने...
लड़कपन में,
एक रोज मुहल्ले के झगड़े में
खून खराबे की प्यासी नजरें देख
सहम कर कांपते हाथों से
बंद कर ली थी खिड़की मैंने...
यौवन में,
उम्र की दहलीज लांघती उमंगों को
ताड़ते मवालियों की नोचती नजरों से
सहम कर विचलित मन से
बंद कर ली थी खिड़की मैने...
अब अचानक
एक दिन जाने क्या हुआ
किवाड़ खोल, बेड़ियां तोड़
निडर मैं बाहर निकल आई
और उस दिन मैंने जाना...
कि खिड़कियां बंद कर लेने मात्र से,
न नजरें बदला करती हैं, न नजारे...-