मेरा ख़ून लेकर गए हैं शीशी भर कर,
बीमारियाँ पता लगाएंगे,
कभी शीशी भर ज़ख़्म ले जाएंगे तब बात करूंगा ।-
कुछ दर्द जो तूने दिए थे कभी,
अपनी स्याही की शीशी में बंद रखता हूँ।
जब तुझे बयान करना होता है,
तब हल्के से उसको उड़ेल दिया करता हूँ।
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"इत्र" की तरह महकती थी तुम
बस "इत्र" की तरह ही उड़ गई,
मैं ढूंढता रह गया, पुरानी शीशी में तुम्हें
तुम बाहरी नई हवा में घुल गई....
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इस दौर के लोगों में
वफ़ा ढूंढ रहे हो,
बड़े नादान हो साहब,
जहर की शीशी में
दवा ढूंढ रहे हो ।
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एक शीशी से पिलाते
फिर रहे सबको दवा।
रोग जस के तस रहेंगे
वैध जी होंगे हवा।।
😊सुधार लो ढर्रा😊-
फिर से वह मुझ पर नज़र रखने लगी है
आज कल वो मेरी ख़बर रखने लगी है
मरा नहीं हूँ अब तक जान गयी है जब से
छोटी सी शीशी में ज़हर रखने लगी है
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टकरा के तेरे बालों से शीशी बिखर गई।
इतर से भरी वो काँच की थी बिखर गई।
जख्मो को भूल तूने जो शीशी को उठाया
हवा भी मीठी हो गई महक बिखर गई।-
वो कलैंडर
जिसे रोज दसों बार देखा करती थी
तारीख़ बदलने को
अब दशकों से पड़ा है, फटे हाल
कि कोई तारीख़ तो आएगी
उसकी धूल हटाएगी।।
बरसों से संभाले रखी है
इक शीशी इत्र वाली है
बिन खोले ही,,,,, खाली हो गई
"मैं" उसकी "वो" मेरी हो गई।।
और देखो!
वो "डिबिया",,,,,,,, भरी रह गई
जिसको होना था खाली
देख लिया करते हैं उसको
होली और दिवाली।।
सच-सच कहना,
उस रात तुम्हें "मैं", याद ज़रा तो आई होगी
मंडप में अपने बैठे होगे और
रस्म सिंदूर वाली निभाई होगी।।
और हां,,,,,,
तुम्हारे कलैंडर की तारीख़ तो अब भी
हर रोज़ बदलती होगी ना??
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