आइए, पढ़ते हैं वह प्रसंग जब निराला जी को 1938 में रेडियो स्टेशन पर कविता पाठ के लिए बुलाया गया ।
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बरसों पहले की बात है। मैं बीमार था। उस बीमारी में एक दिन मैंने सहज ही रेडियो लगाया और अचानक एक अद्वितीय स्वर मेरे कानों में पड़ा। स्वर सुनते ही मैंने अनुभव किया कि यह स्वर कुछ विशेष है, रोज़ का नहीं। यह स्वर सीधे मेरे कलेजे से जा भिड़ा। मैं तो हैरान हो गया। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि यह स्वर किसका है...
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चिठ्ठियाँ कोई पुरानी सी
रेडियो के सुहाने से गीत
यूँ ही संँजो रखी है मैंने
तेरे मेरे विश्वास की प्रीत...!-
।।रेडियो।।
रेडियो सुनते ही सब का दौड़ कर आना
कानों में घुल सी जाये वो मीठे गीत सुनना।
लव गुरु के कार्यक्रम पर अपने लिए भी कभी
महोब्बत के कुछ किस्से कुछ तरीके उपाय सुनना।
बिगड़े रेडियो को कभी और बिगाड़ना बनाना
याद है वो लता दी किशोर जी के मीठे गीत सुनना।
अपने मनपसंद गीतों की फरमाइश करना
उसे सुनने को सबकुछ छोड़कर घण्टों इंतजार करना।
समाचार छोड़कर बाकी सब कार्यक्रम सुनना
क्रिकेट की कॉमेंट्री में वो हर चौके छक्के सुन उछल जाना।
याद है कुछ..! जब ये रेडियो ही बस अपना था
दोस्तों में सबसे खास दोस्त, दिल को बहलाये रखने में मस्त था।-
रेडियो के फ़रमाइशी कार्यक्रम में अक्सर लोगों द्वारा इन गानों की बहुत demand होती है ।
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1. जीता था जिसके लिए जिसके लिए मरता था,वो ऐसी लड़की थी जिसे मैं प्यार करता था।
2. न कजरे की धार, न मोतियों के हार
3. दुश्मन न करे दोस्त ने वो काम किया है
✅🤣🤣😁😁🙏आप सभी सहमत हैं मेरी बात से।-
रात की शांति,
खिड़की से झाँकती,
चाँद की चांदनी,
और विविध भारती....
अब ज़िन्दगी में वो मज़े कहाँ....-
"रेड़ियो और चाय"
मुझे आज भी पसंद है वो रात का आलम..
आसमान से बरसती हल्की ओस की बूंदे..
हाथ मे चाय का प्याला..
चारों तरफ़ सिर्फ़ सन्नाटा..
हल्की धुन में बजता रेडियो ..
और उस पर आता मेरा पसंदीदा गाना..
मानो मेरी सारी थकान मिटा देता था..
फिर..
फिर..एक कवि और उसकी कल्पना का सवेरा होता था..
जो सारी रात मन की गति से बस चलता रहता था..
शब्दों और उसकी रूह से तुम्हे मिलाना..
यहाँ बेहद आसान लगता था..
मुझे आज भी पसंद है ..!!-