आँखों से देख आसमान खुला कहाँ है
बंजर सी जमीन को घर मिला कहा है
रुका वक़्त भी जान जाता है सब कुछ
पर धूप को छाव का राज मिला कहाँ है
क़भी अंधेरी राते ख़्वाब सारे उड़ा देती है
दिन रोता है पर उसे कोई गिला कहाँ है
रेगिस्तान भी रूठकर प्यासा मर जाता है
दरिये को क़भी मीठा पानी मिला कहाँ है
हुआ खाली हर सपना सफेद बादल सा
पर उम्मीद का बादल चमकीला कहा है
मुनासिब है सारे ज़ख्म दर्द के छालों पर
टिका आज तक बुरा सिलसिला कहाँ है-
राते भी पहरा सुबह तक देती है
खुद सोती नही हमे सुला देती है
टकटकी नींद आखो में लगाकर
जाने कैसे उजाले फुसला लेती है-
मुझे रात भर तनहा जगाती हैं तेरी यादे,
पता नहीं कब ये भी मुझे भूल जायेगी तेरी तरह....!-
बस जीता हूँ खुद को
सोचता रहता हूँ तुमको
वो भी क्या रात थी,
तुम हमारे साथ थी-
( प्राकीर्ति और मैं )
वो छन - छन करती पंखुड़ी
मेरी सांसो मे धीरे से समाती है!
हुई शोले - शबनम सी माद्धम
मेरी रुखसारो कदम गुनगुनाती है!
बेजार हुए इन लम्हो को अपने
गुले गुलशन से नहलाती है!
रेशम हुए मध्य इन जुल्फों को
अपने आबरू से संजोती है!
खिलखिलाती शबनम मेरी पेशानी पर
होले से प्यार का चुम्मन कराती हैं!
मद्धम फिजाओ को आबरू मे लपेटे हुऐ
रातो हसीन रंगीन नगने दिखाती हैं!
ये महकी -महकी फिजाये मेरी नींदों को
रोज जन्नत की सेर कराती हैं!
वो छन - छन करती पंखुड़ी
मेरी सांसो मे धीरे से समाती हैं!
Gulista mansoori-
उसकी झुकी नजरे बता रही थी,
उसकी बेवफाई की दास्ताँ..
उसकी खुली जुल्फे बता रही थी,
उसकी गैरो से मुलाकात की दास्ताँ...
उसके पैरो की पायल बता रही थी,
उसकी हसीन रातों की दास्ताँ...-
ये राते भी इतनी छोटी होने लगी है की सपने भी पूरे नही होते है...!!
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