अलहदा इस दुनिया में बस तू एक कुरबत रांची,
रिवायतों सी जिंदगी में अल्हड़, मदमस्त रांची।
हर शहर ने आजमाया मुझे, अपनाया सिर्फ तूने रांची।
रह लिए कई नगर मैंने, घर लगा बस तू रांची।
सांसों सा बस गया है, तेरा हर वो मंजर रांची।
मेहबूब की बाहों सा सुकुन तु है रांची।
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पानी तू आज बरसा है ऐसे,
रांची के सारे झरनों का संगम हो जैसे।।-
कुछ अनकहे ख्याब है इन आंखों में, इनका रूबरू होना अभी बाकी है।
मरते तो सभी है कोई जिंदा हो कर या कोई जान से, पर मर के भी जीना अभी बाकी है।-
तुम हो कि हर किसी मय्यत को कांधा देते फिर रहे हो ।
और रांची में तुमको कब्रिस्तान में भी जगह नहीं दी जाती ।
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ठण्ड का मौसम, सुबह की चमकती धुप, हलकी-हलकी चलती सर्द हवाएं, सर्पीले रास्ते, घाटियाँ, ऊँची-नीची पहाड़ियां, वक्रनुमा पानी का किनारा – इन शब्दों का प्रयोग मैं किसी हिमालयी क्षेत्र की ओर इशारा करने के लिए नहीं कर रहा, बल्कि अपने ही देश झारखण्ड के बारे में बता रहा हूँ। सच तो यह है की दूर का ढोल सुहावन होने के कारण अक्सर हम नजदीकी नजारों को कोई महत्व नहीं देते हैं, और फलस्वरूप आस पास के बारे ज्यादा नहीं जान पाते। झारखण्ड में राँची से उत्तर की ओर 40 किलोमीटर दूर की एक घाटी इसी प्रकार के अछूते प्राकृतिक सौंदर्य का शानदार उदाहरण है
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इस शहर की बात ही बेहद निराली है,
शुष्क होतीं हवाएं और ठंडा पानी है,
राँची लिए मेरी एक अद्भुत कहानी है।-
सियासत इस तरह आवाम पर एहसान करती है...
आंखें फोड़ कर चश्मा दान करती है।
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मैं मोराबादी घूम आया
चाय की प्याली दो पी आया
नुक्कड़ की बाते जो सुन आया
अपनी शहर की तारीफ कर आया
मैं मोराबादी जो घूम आया
चाय की दो प्याली पी आया-
•|| होलक बड़ी अन्याय , कइसे सहल जाए||•
पुजत रही नदी तालाब , पूजत रही पोखर ,
देइख के हंसत रहै , शहरी अंग्रेज़ जोकर ।
नदी झूर जंगल जमीन रहे हमीन कर साथी ,
कोनो दुसर नई रहे , बस रहे मानवता कर जाती ।
मिलत रहे साफ पानी , रहे बेस हवा ,
जितिया परब होवत रहे , चढ़त रहे जवा ।
उठते बिहान जहां सब कुटत रहैं ढेकी ,
खून में ही बसत रहे मानवता और नेकी ।
नखे अब साफ पानी, नखे बेस हवा ,
कोई नई चढ़ाय ना अब परबो में जावा ।
नखे अब बगीचा कैसे अम्बा तोडल जाई ,
होलक बड़ी अन्याय , कइसे सहल जाई ।।
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जे रएह गलाई रहे, अधूरा ख्वाहिश हमर...
लग रहलो है जैसे पूरा हो जताई, ई बार।-