जो आवाज़ें
दूर से मीठी सुनाई देती थी,
आज शोर हैं।
ये शहर बहुत शोर करता है।
सोना मुश्किल है,
जागना और मुश्किल।
सुन पाना, नामुमकिन।
मगर देखोगे तो जान पाओगे
ये शहर बातें करता है,
कहता है
" नहीं है
धूप में नहीं, बरसतों में नहीं।
थकना नहीं है
रास्तों में नहीं, मंजिलों पर नहीं।
डरना नहीं है
अंधेरों में नहीं, रातों से नहीं।
खोना नहीं है
झूठ में नहीं, खाबों में नहीं।"
ये शहर कहता है,
सब शोर है।
- सुप्रिया मिश्रा-
बरसाती हो तुम प्यार की बारिश,
तभी बह पाता हूं टूटकर सड़क जैसे।
मुंबई जैसा है इश्क़ हमारा।-
उन्हें देखकर लहरे तो क्या, समुद्र ही उफन जाता है। जब दिल जलते हैं तो मुंबई में बाढ़ आ जाती हैं।
-
जमाने की कोई बंदिश,
भला रोकेगी क्या मुझको?
सभी से दूर होकर मैं,
तुम्हारे पास आया हूँ!!
सिद्धार्थ मिश्र-
मेरी विवशता...
राजनीति के पाटो के बीच,
पिसती भूख और लाचारी देख,
आंखे लहू से भर गई।
वो भूखे रोते बिलखते बच्चे,
वो धूप में तड़पते बच्चे,
देख रूह मेरी डर गई।।
तुमसे A.C मै बैठकर लिस्ट तैयार ना हो सकी,
वो 45 डिग्री की धूप में इंतजार करते रहे।
तुमसे एक बार भी दिल उनके ना जीते जा सके,
वो तुम्हारा झूठा भरोसा भी बार बार करते रहे।।
तुम निर्दयी किस्मत के धनी,
तुम माहिर खिलाड़ी सियासत के।
मानवता से ना खिलवाड़ करो,
ये काम हैं शैतानियत के।।
ये कहर जो हम पे कुदरत ने ढाया है,
ये मुसीबतें ये दर्द जो हमने पाया है।
इंसानों के हाथो ही लुटती इंसानियत,
ये हमने अपने ही कर्मो से कमाया है।।
भूल हुई तेरे बच्चो से ए कुदरत अब तू क्षमा कर दे,
इंसानियत को बचा ले होंठो की हसी अता कर दे।।-
हेल्लो निमेष!
हां प्राजक्ता बोलो, क्या हुआ?
मिलना चाहती हूँ तुमसे, क्या आज शाम मेरे घर आ सकते हो?
क्यों कुछ ज़रूरी काम है?निमेष ने पूछा।
इतनी दूरियां आ गयी क्या, जो ज़रूरी और गैर जरूरी सोचना पड़ रहा है। ख़ैर देखो अगर आ सकते हो तो अच्छा होगा।
बात वो नहीं है प्राजक्ता, लॉकडाउन में निकलना ठीक नहीं लगता, लेकिन आ जाऊंगा शाम को।
6 बजे निमेष प्राजक्ता की बिल्डिंग में पहुंचा। आगे का गेट मार्केट सब कुछ सुनसान पड़ा था। अभी लॉक डाउन से पहले यहां कि रौनक देखते बनती थी। कोरोना के ख़ौफ़ से पलायन जारी है। निजी वाहनों, बसों, ट्रकों से लोगों के घर वापसी का सिलसिला जारी है। शाम होते ही लोग पलायन करने लगते हैं।
निमेष अपने ख्यालों में खोया ही रहता अगर ऊपर से आवाज़ नहीं आयी होती।
नीचे क्या कर रहे हो?ऊपर आना है या नहीं!!
हां, आ रहा हूँ।
निमेष करीब 6 महीने बाद प्राजक्ता के घर पहुंचा था। पिछले ऑफिस को छोड़कर जाने के बाद बिल्कुल भी सम्पर्क बाकी नहीं बचा था। दरअसल प्राजक्ता ने निमेष की देखरेख में ही नौकरी शुरू की थी। शुरुआती दिनों में हर कोई उनके साथ को सराहता था। ये पूरा किस्सा शुरू हुआ था एक चाय से।
क्रमशः
सिद्धार्थ मिश्र-
मुंबई की रफ्तार, के साथ भागती जिंदगी में सुकून के लम्हों की गुंजाइश नहीं होती। सुबह सवेरे शुरू हुई जद्दोजहद देर रात को फुर्सत के लम्हों में तब्दील होती है। आंख लगी और सुबह हो गयी। हर रोज ये शिक़ायत रह जाती है जिंदगी में। उस पर हर सुबह पानी आने की ख़बर वाली सीटी रविवार को भी चैन से सोने नहीं देती। ऑफिस में भी कैम्पेन की गहमागहमी,कभी ये कभी वो। अजीब है ये रफ्तार, कभी समंदर किनारे अकेला बैठा रवि ये सब सोचकर मुस्कुरा देता। अपना ही पुराना डायलाग याद आता था, हम हम हैं बाकी सबमें पानी कम है।
आज यही सब सोचकर खुद पर हंसी आती थी। सर्कस के शेर की तरह हर कलाबाजी करनी पड़ती है, क्योंकि ये है मुम्बई मेरी जान। बीते 1 साल से छुट्टी भी नहीं ली कोई, तो 5 दिनों की छुट्टी ले ली। जिनमे दो दिन सफ़र के नाम तय थे। एयरपोर्ट जाना, टर्मिनल पर वक़्त बिताना और गंतव्य तक पहुंचना। गंतव्य था मनाली, हिमालय की गोद में रवि को विशेष राहत मिलती थी। 5 दिनों के हिसाब से मनाली में फुर्सत के तीन दिन मयस्सर होते। साल भर की, झुंझुलाहट को मिटाने के लिए हिमालय की एक झलक काफी होती है। ये सब सोचते सोचते रवि, भूटार लैंड हो गया। ये एयरपोर्ट मनाली से लगभग 50 km की दूरी पर है। वहां से टैक्सी ली और निकल पड़ा मनाली की ओर।
सिद्धार्थ मिश्र-
पावसातील मस्ती घेऊन,
मातीचा दरवळणारा सुगंध घेऊन,
मुलांची शाळेची लगबग घेऊन,
पावसाची रिपरिप घेऊन,
रस्त्यावरचा चिखल घेऊन,
मुसळधार सरी घेऊन,
मुंबईकरांसाठी लोकलमधील चिकचिकित गर्दी घेऊन,
मरीन ड्राईव्ह वरची मौज-मजा घेऊन,
नोकरदारांसाठी बाहेर पडण्याची कोंडी घेऊन,
लोकांची छ्त्र्या सांभाळत चालण्याची परवड घेऊन,
परंतु एकंदरीत या सगळ्यांसाठीच
थरार, मजा-मस्ती व भविष्यासाठी अनेक आठवणी घेऊन...!!-