हिन्दू और मुसलमान के नाम पे
इंसानियत जाने क्यूं बांटी जा रही है
मजहब कौम के नाम पे
मंदिर-मस्जिदें क्यूं जलाई जा रही है..
CAA और NRC के नाम पे
दो मजहबों की बीच दरार क्यूं डाली जा रही है
जनता के लिए किसी ने
ना पत्थर खाया, न किसी ने गोलियां खाईं
फ़िर सहानुभूति के नाम पे
लोगों को भड़काने की साज़िशें क्यूं रची जा रही है..-
मेरे मज़हब को जब चाहो, तुम आकर नंगा कर देना ।
थोड़ा और वोट चाहिए हो तो फिर एक दंगा कर देना ।
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वो बेवफा नहीं, तो कैसे कहे बेवफा है, वो
खेल_ए_मजहब का हैं जो जुदा है, वो
प्यार_ए_गुनाह लगता हैं इस ज़माने को
हम हिन्दू, वो मुस्लिम, इसलिए खफ़ा हैं जमाना🖊️🖊️-
मुफ़्लिस के बदन को भी है चादर की ज़रूरत
अब खुल के मज़ारों पे ये एलान किया जाए-
सियासत की घंटी बजी,
अपने मुल्क में मैं पहचान खो गया ।
कल तक तो दोस्त था मैं,
आज मैं फिर एक 'मुसलमान' हो गया ।
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कुछ अपने हैं बहुत पराए भी हैं,
कुछ सपने हैं बहुत बताए भी हैं।
बस इतना हासिल हुआ मजहब में,
कुछ दफने हैं बहुत चिताएँ भी हैं।।
-ए.के.शुक्ला(अपना है!)
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कोई बोलता है, तुम हिन्दू बन जाओ।
कोई बोलता है, मुसलमान बन जाओ।
कुछ ऐसा कर जाओ इस जिंदगी में कि,
हर मज़हब की तुम "पहचान" बन जाओ।
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आज चाँद से इजाजत मांगी है और तुम्हें बुलाया है,
इंसानो की जमीं पर मज़हब की दीवारें बहुत है..-
वतन की नीँव सीँची है और इस वतन को चमन बनाया है,
गालिब नें उर्दू को उर्दू और दिनकर नें हिंदी को हिंदी बनाया है।
मजहबी झगड़ों की बुनियादें तो एकदम खोखली हैं,
वतन को वतन उर्दू नें भी बनाया है और हिंदी नें भी बनाया है।।
-ए.के.शुक्ला(अपना है!)-
नफरत की हवाएं आज तेज हैं
तिरंगे से क्यों सबको परहेज हैं
समेटकर रख दो तुम इन धर्म के झंडों को
क्यों नहीं समझते राजनीति के हथकंडों को
मोहब्बत मरी नहीं उसे ढूंढो जिंदा हैं
हुकूमत का उसपर डाला हुआ फंदा हैं
तुम्हें अँधेरी गुफा में बैठा रखा हैं
नाम उसका मेरा मजहब रखा हैं
तुम्हारी सोचने की रोशनी छीन ली हैं
कल दंगों में तुमने अपनो की ही जान ली हैं
क्या हासिल हुआ उस मौत के मंजर में
तेरे जैसा ही खून लगा था तेरे खंजर में
क्यों अपने खून से सींचते हो हुकूमत को
हो एकजुट बदल डालो देश की सूरत को-