तुम्हें नाचने के लिए दो पांव नहीं मेरी जान
एक दिल चाहिए
जो भरा हो प्रेम से!-
भोर की पावन बेला अजर
आलोकित करे मंगल समर
गाए धुन कोई मधुर मधुर
कर्ण आलिंगन करे असर
नृत्य करे मन संवर ठहर
अंत ही आरंभ समझकर
क्षितिज पार गूजे जब स्वर
प्रेम में प्रकृति प्रखर मुखर
संगीत आनंदित तब नश्वर
आच्छादित हो कर दे भर
अलौकिक ज्ञान तरअंतर
नव ऊर्जा का हो धरा संचार
नभ सज्जित करे मुक्ताहार
प्रभात संग नवचेतना गूथकर
दृश्य मनोरम ये भवताप हर
भोर की पावन बेला अजर
आलोकित करे मंगल समर-
क्रोध का नृत्य , तांडव का भाव,
खुशी का नृत्य, सौंदर्य का भाव,
नृत्य करत सुखमेयी लागे,
तांडव करे तो डमरू बाजे,
नृत्य हर क्षण भावे,
मन के भाव नृत्य दिखावे!
प्रेम शील जल धारा हो,
नृत्य करे जब यार संगी गावे!
नृत्य मुझे नियारा लागे,
जब मन प्रसन्न हो शिव को भावे!!-
"नृत्य एक अनंत प्रार्थना है अनादि से"
(संपूर्ण रचना नज़र कीजिए अनुशीर्षक में)
-
ना नृत्य को देखा ना कला वरदान को देखा
ना रुद्र काली देखी
ना तांडव करते शिव संसार को देखा
ना देखा नटराज का पूजन
ना नृत्य कला वरदान के सम्मान को देखा
ना घुंघरुओं की झंकार देखी
ना ताल पे उठते पांव को देखा
ना हाथों की मुद्राएं देखी
ना आँखों में अभिमान को देखा
ना नृत्य श्रृंगार को देखा ना बहते मन को देखा
देखा तो बस कोठे का नाच देखा अभद्र व्यवहार देखा
मूढ़बुद्धि , ना समझ पाई फ़र्क़ नाच में और कला वरदान में !-
दिमाग में चल रहा नृत्य विचारों का
दिल भटक रहा यहाँ बंजारों सा-
मैं
सिखा न पाया
शब्दों को नृत्य
मुद्राएँ
भाव भंगिमाएँ।
पर
वे अकसर ही
मेरे मस्तिष्क में
करते हैं
ताण्डव।
किसी ने
सच ही कहा है
शब्द ही ब्रह्म हैं
शब्द ही शिव हैं।-