अहसास उतार कर कलम से
कागज पर कलमा लिखती हूं
लफ्ज़ों की कर इबादत मैं कागज पर नमाज पढ़ती हूं ।।-
बैठ कर यादों के मुसल्ले पर
इश्क़ की नमाज पढ़ रहे है
कुबुल हो जाये दुआ मेरी
तो सनम मेरा ख़ुदा हो जाये ।।-
तेरी याद में मेरा झूमना....मेरा हज है मेरी नमाज़ है
ये गुनाह है तो हुआ करे, मुझे इस गुनाह पे नाज़ है.....!!!
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कल गरीब कहकर जिसने उठा दिया था महफ़िल से।।
आज जब नमाज पढकर फेरा सलाम तो वो मेरे पास ही था....-
अदब से...
सर झुकाता हूँ...
मैं मंदिर और...
मजारों पर...
मुझे पूजा नमाज़ तो...
नहीं आती है...
मगर मैं ...
ढूंढता हूँ खुद को...
इनकी चौखटों...
और चौबारों पर...-
मे लिख दूं किताब पर तू साथ तो हो
मे पढ दूं नमाज पर मिलने की आस तो हो
मे बन जाऊ बैराग मगर उस मे कोई बात तो हो-
रब ने हमारे लिए ये दुनिया बनाया
जमीन बनाया आसमान बनाया
पहाड़ बनाया झरने बनाया
इंसान ,पशु,पछी, जानवर,
सब कुछ रब ने इंसान के लिए बनाया
रब ने इंसान से क्या मांगा सिर्फ
पूजा,अर्चना,आराधना,नमाज़
पर इंसान इतना स्वार्थी निकला
की वो भी नही करता ।।-
कि कोई रिश्ता नहीं रहा आपसे
फिर भी ना जाने क्यों,
मेरे सवेरे को आज भी
आपकी आदत सी है,
ये पहर ना जाने
कौन सा राग बजाता है,
कि तेरी यादों का दरबार
हर भोर सज जाता है,
लगता है तुम
‘salat al-fajr’
नियम से अदा करने लगी हो,
ये जो रोज बेमतलब से जागे रहते है
वो कुछ और नही,बहाने है शायद
जो इस खामोशी मे हम भी,
हर सवेरे तुम्हारा सजदा कर लेते है!-