भरा हुआ था बटुवा जिनसे, वो टिकटें,
सजी हुई थी डायरी जिससे, वो नज्में,
कब से इंतजार में थे जो, वो कच्चे शे'र,
भीग गया फिर से आज जो,वो सफ़ेद गुलाब,
समर्पित कर वर्तमान की अग्नि को,
रिक्त किया अतीत की राख से स्वयं को ।
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जिनके जिक्र में डूबी मेरी
हर नज्में-ए-रूबाई थी,
कमबख्त ,
बड़े मासूमियत से वो बोल पड़े
" तुम हो कौन? "
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तेरी नज़्मों को पढ़ते हैं हम तस्बीह की तरह
तवज्जो रखते हैं ये इक आयत का
पाँच बार पढ़ कर जो फूँक लूँ ख़ुद को
तासीर मिल जाता है मुझे उनसे इबादत का-
मुझसे रूठकर मेरी नज्में
लड़खड़ाते हुए कदमों से
तेरे पास आकर बैठ जाती हैं
तुतलाती हुई जुबान में
मेरी तकरार करती हैं
नादान हैं अभी ये हकिकत से बेखबर
के तु आंकड़ों का अफसर,इन अल्फाजो का तलबगार नही
के तु अपनी मुहर किसी भी कागज पर
बिना नफा नुकसान का हिसाब किए लगाता नही
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ये नज्में-गजलें , कविता-क़िस्से ही पार ले आये वरना,
हिज्र का दरिया इतना गहरा कि डूब ही जाता मैं बेचारा-
बड़ी खुदगर्ज है ख्वाहिशें मेरी
इल्जाम खुद पर लगाकर
कैद करना चाहती है तुझे
नज्मों में
बड़ी खुदगर्ज है खामोशी तेरी
इल्जाम मुझ पर लगाकर
नजरअंदाज कर जाती है मुझे
और रखती भी है
नजरों में— % &-
उसके नखरों का भी अजीब आलम है
मेरी नज्में तो पढ़ती है मेरी आँखें नहीं।
मेरे इश्क़ का आलम महंगाई से कम नही
दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।-
नज्में आप हमारी
कुछ इस तरह सूनते हो,
रुकसार पर आंसू,
लबो पर हँसी और
आँखो में ख्वाब बुनते हो।
गर इतने हसीन
लगते हैं लफ्ज हमारे
तो आपका नाम
पुकारने पर
अंजान क्यूँ बनते हो।
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मत पूछ कि मायने क्या हैं, क्या हैं मायने तेरी नज़्मों के, शायर!
कि मेरी उस्तुवार ख़ामोशी की अस्ल जुबां है ये नज़्में..
कि जब सोचता हूं तन्हा बैठे कहीं बेनाम रातों की सरगोशीयों में
उन स्याह सरगोशीयों की इंतेहा है ये नज़्में..
या कि जब उठाकर बोझ, भीगी पलकों का, चलता हूं कुछ कदम दुश्वार रस्ते
जख्मी पैरों से बहते लहू के बाकी निशां है ये नज्में..
या कभी जब सांस छोड़ता हूं, आह भरकर, तो धुआं सा रिसता है
यह जिंदगी बूढ़ी शाम और हसीं रात जवां है ये नज़्में..-