क्या हैं...
ओस की बूँद,
वर्षा की बौछार,
और ओलावृष्टि?
रसायन वैज्ञानिक के अनुसार
इनकी आणविक संरचना है समान।
एक कवि को दिखाई देता है
सौन्दर्य,
प्रेम,
और दर्द।
और मुझे, जाने दीजिए...
मुझे तो बस दिखता है
एक पक्षी...
जो तीनों ही सूरतों में
झांकता है घोंसले के बाहर
सूरज के इंतज़ार में।-
ओले अकेले नहीं गिरते हैं
गिरती है किसान की आस
गिरता है गरीब का विश्वास
गिरती है निर्धन की श्वास
ये ओले नहीं गिरते काश..!!-
किसानों की मेहनत पर फिर से पानी फिर गये।
खड़ी थी जो भी फसल उन पर तो ओले गिर गये।
सभी कुछ तैयार था बस रह गया था काटना,
हुआ है बर्बाद सब कुछ सब दुखों से घिर गये।-
मौसम ने मचाया हाहाकार।
है बारिश और ओलों की मार। किसान की
आस लगाए बैठे कृषक सब, व्यथा
कुछ भी नहीं करती सरकार।
कभी सूखा, कभी बाढ़ आये। 14/03/2020
कुदरत आखिर क्यों सताये।
कोई नहीं उनका सुनने वाला,
सदा रहते कृषक ही लाचार।
आस लगाए बैठे कृषक सब,
कुछ भी नहीं करती सरकार।
फसल किसान भले ही उगाये।
उसका दाम कोई और लगाये।
खाद,बीज, के.सी.सी. खातिर,
दौड़ते हैं सभी कई - कई बार।
आस लगाए बैठे कृषक सब,
कुछ भी नहीं करती सरकार।
खड़ी फसल जब गिर जाये।
लाख जतन से अन्न घर आये।
मुसीबत में ही रहते हरदम,
किसका अब करें भी पुकार।
आस लगाए बैठे कृषक सब,
कुछ भी नहीं करती सरकार।-
वैशाख की दुपहरी में
सिहरने लगे जब देह
गर्माहट ढूंढ़े जब तन-मन
कंबल चादर में सस्नेह
समझो प्रकृति चक्र गड़बड़ाया
संकट कोई हैं आनेवाला या आया
मानवता चली प्रलय की ओर
कोई द्वार नहीं अंधकार घनघोर-
ना जाने ये कैसी महामारी अाई है,
ओलावृष्टि ने आज फिर फसलों को हानि पहुंचाई है।-
हाय! रे कुदरत ये करिश्मा तेरा,
क्यों खफा है हमसे रहनुमा मेरा...
ठिठुरती ठंड में जिसे अपने खून से सींचा था,
उसे आज बर्बाद कर गया ओला तेरा...
ये किस गुनाह की सजा दी जा रही है किसानों को,
अन्न उपजाने वाले क्यों तरस रहे हैं दाने-दाने को...
जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा होता है,
क्या ये बातें रह गई अब बस सुनने सुनने को...
ये ओले नहीं तूने शोले बरसाए हैं,
गरीब किसानो के तूने अरमान जलाए हैं...
तेरी शिकायत करें भी तो किससे ये खुदा,
महाजनों के कर्ज ने कई घर नीलाम कराए हैं...
जय जवान 🙏।जय किसान🙏।
😥😥😥😥😥😥😥😥😥-
बारिश का तो सिर्फ नाम था..!!
राहत -ए-बूंदें कम ..!!
ओलावृष्टि बेतहाशा सी थी..!!
उनकी फिजाओं में आज ..!!
तुफानों की मेजबानी थी.....!!-
बदहाली का मारा, मौसम का हारा, और ख़ौफ़ में डार मुझे।
दिनरात पड़ा खेत में, तन तन स्वेद में,और ताप प्रहार मुझे।
मैंने कब हारी मानी, मेरा तो धर्म किसानी, तू कर मन मानी,
मैं किसान, खड़ा सीना तान, तू और ओला पत्थर मार मुझे।
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