सपना था कोई जैसे अपना था कोई,
बिखरा कुछ इस कदर, समेटने में ही उम्र हो गई,
निकले थे जैसे हिमनदी की भांति, राहे बनती गई,
आये जब मैदानों में गहरी ख़ामोशी हो गई,
बहूत जिद्दी थी, ज़िंदगी घमंड की परछाइयों से घिरी हुई,
ढलता गया सूरज फिर रात गहरी जैसे खाई हो गई,
वादा करके पक्का, निभाने की मंशा धरी रह गई,
खिलती सुबह,जब शब के नयनों की काजल हो गई,
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