सुनो देखों
"हम अच्छे दोस्त हैं.."
ये अच्छा उलाहना है..
जिन्हें कभी
दोस्त से अधिक होना था
वो सदा
दोस्त ही बने रहे....-
चाहे मिले सराहना, चाहे मिले उलाहना
कम न होगा कभी, इन शब्दों को चाहना-
मैं तुमसे उलाहना की शिकायत करती हूं
कि मैं ये डिजर्व नहीं करती। साथ ही,
मैं उतनी ही उलाहना उसकी करती हूं,
जो असल में ये डिजर्व नहीं करता।-
अपनों के ही उलहाने
तीरों से चलते सीने पर
जब हम खरा उतरने की
कोशिश करते अपने उसूलों पर...!
माना उनके एहसानों का
कर्ज़, हमारी रूह देह पर
इसलिए स्व-इच्छाओं की
आहूति दी उनके फ़ैसलों पर...!
नहीं भटके राहों से कभी
अटल, सिद्धांतों की कसौटी पर
मगर अपने ही साथ छोड़ देते
कड़े इम्तिहान के दौर पर...!
मासूम ख़्वाबों को पाला और
जीने का सोचा, ख़ुद की हसरतों पर
मगर क़िस्मत को कहा था मंज़ूर
होना पड़ा फ़ना अपनों की अकड़ पर...!
और न रही कोई उम्मीद
ज़िन्दगी के इस दोराहे पर
ख़ुद जीने की वज़ह ढूँढ़ रहे
अपनों की भीड़ में अपने वजूद पर...!-
एक नज़ाकत भरी लकीर थी,
नाकामी से पहले की उफ्फ़ में,
और बाद के उलाहने में ।-
अपनी उम्र का भी उलाहना बनाना पड़ता है,
जी भर के रोने को भी बहाना बनाना पड़ता है।-
तुम्हें चाहा था दिल से
फिर ये भटकन कैसी
कब विधर्मी हुए
क्यूं ऐसी परीक्षा ली।।
" हे कान्हा हे सखा! "
काहे लीनी चाकरी करी न जाए जो
मन तो दुविधा में रहा खींची काहे न डोर
निंदक नियरे राखती कहता ठोक बजाए
नाथ रसिक ऐसे भये अपनी सुध नहीं हाय।
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